
छे. शुद्ध ज्ञातास्वभावी आत्माने परनो के रागनो कर्ता मानतां पोताना ज्ञाताभावनी
हिंसा थाय छे, चैतन्यप्राण हणाय छे, ते ज हिंसा छे.
एकतानी मिथ्या मान्यता करे छे, ने ज्ञानी स्व–परनी भिन्नतारूप यथार्थ वस्तुस्वरूप
जाणे छे, परनी भिन्नता उपरांत अहीं तो एम बताववुं छे के शुद्धज्ञाननी द्रष्टिवाळा
ज्ञानीने रागादिभावोनुंय कर्ता–भोक्तापणुं नथी. आवा शुद्धज्ञाननी द्रष्टि थतां निर्मळ–
वीतरागपर्याय थई तेनुं नाम धर्म, अने ते ज परम अहिंसा. भगवाने आवी
वीतरागी अहिंसाने परमधर्म कह्यो छे.
उत्तर:– भाई, आमां करवानुं ए आव्युं के जडथी ने रागथी भिन्न पोतानुं
करवा जेवुं छे. आनाथी विरुद्ध बीजुं कांई करवानुं चैतन्यप्रभुने सोंपवुं ते हिंसा छे,
अधर्म छे.
पण नथी करतो; अने आत्माना भाननी साची भूमिकामां तो धर्मात्मा रागादिनेय
नथी करता, अंतरनी अनुभवद्रष्टिमां तो धर्मी पोताना अतीन्द्रिय आनंदने ज भोगवे
छे. आवुं आनंदनुं वेदन ए ज धर्मीनी धर्मक्रिया छे. आवी क्रिया करे तेने ज्ञानी
कहेवाय. धर्मी थतां पोतानी शांत ज्ञान–आनंदमय वीतरागदशाने ज ते करे छे ने तेने
ज भोगवे छे, –तन्मयपणे वेदे छे.
पुद्गलनां रजकणो छे. भाषानां रजकणोनी खाण तो पुद्गलोमां छे, आत्मानी