Atmadharma magazine - Ank 305
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : फागण : २४९प
कर्ता–एम अज्ञानी माने छे ते मिथ्यात्व छे, मिथ्यात्वनुं महापाप अनंत दुःखनुं कारण
छे. शुद्ध ज्ञातास्वभावी आत्माने परनो के रागनो कर्ता मानतां पोताना ज्ञाताभावनी
हिंसा थाय छे, चैतन्यप्राण हणाय छे, ते ज हिंसा छे.
ज्ञानी के अज्ञानी कोई जीव पोताथी भिन्न जगतना कोई पण पदार्थने करी के
भोगवी शकतो नथी. फेर एटलो छे के अज्ञानी ‘हुं करुं–हुं भोगवुं’ एम स्व–परनी
एकतानी मिथ्या मान्यता करे छे, ने ज्ञानी स्व–परनी भिन्नतारूप यथार्थ वस्तुस्वरूप
जाणे छे, परनी भिन्नता उपरांत अहीं तो एम बताववुं छे के शुद्धज्ञाननी द्रष्टिवाळा
ज्ञानीने रागादिभावोनुंय कर्ता–भोक्तापणुं नथी. आवा शुद्धज्ञाननी द्रष्टि थतां निर्मळ–
वीतरागपर्याय थई तेनुं नाम धर्म, अने ते ज परम अहिंसा. भगवाने आवी
वीतरागी अहिंसाने परमधर्म कह्यो छे.
प्रश्न:– आमां अमारे करवानुं शुं आव्युं?
उत्तर:– भाई, आमां करवानुं ए आव्युं के जडथी ने रागथी भिन्न पोतानुं
चैतन्यस्वरूप जेवुं छे तेवुं द्रष्टिमां लईने तेनो अनुभव करवो. मोक्षने माटे आ ज
करवा जेवुं छे. आनाथी विरुद्ध बीजुं कांई करवानुं चैतन्यप्रभुने सोंपवुं ते हिंसा छे,
अधर्म छे.
* धर्मात्मानी धर्मक्रिया केवी छे? *
ज्ञानस्वरूप आत्मा पोताथी बहारमां तो कांई करी शकतो नथी.
अशुद्धउपादानपणेय अज्ञानी मात्र रागने करे छे, पण परने तो अशुद्ध उपादानपणे
पण नथी करतो; अने आत्माना भाननी साची भूमिकामां तो धर्मात्मा रागादिनेय
नथी करता, अंतरनी अनुभवद्रष्टिमां तो धर्मी पोताना अतीन्द्रिय आनंदने ज भोगवे
छे. आवुं आनंदनुं वेदन ए ज धर्मीनी धर्मक्रिया छे. आवी क्रिया करे तेने ज्ञानी
कहेवाय. धर्मी थतां पोतानी शांत ज्ञान–आनंदमय वीतरागदशाने ज ते करे छे ने तेने
ज भोगवे छे, –तन्मयपणे वेदे छे.
व्यवस्थित भाषा नीकळे, ईच्छानुसार शरीर चाले, छतां ते कार्यो आत्मानां
नथी. जे कार्यमां जे होय तेनो ते कर्ता होय. भाषामां आत्मा नथी, भाषामां तो
पुद्गलनां रजकणो छे. भाषानां रजकणोनी खाण तो पुद्गलोमां छे, आत्मानी