
रजकणोमां आत्मा नथी, आत्मा तेनो कर्ता नथी. अने धर्मद्रष्टिमां धर्मीजीव विभावनो
पण कर्ता नथी. धर्मात्मानी साची क्रिया अंतरद्रष्टि वडे ओळखाय छे. थोडुं लख्युं झाझुं
करीने जाणजो’–एम आ टूंका सिद्धांत–नियमो बधे लागु करीने वस्तुस्वरूप समजी
लेजो.
तेने करतो नथी. जुओ, आ साधकदशानी वात छे,–जेने हजी ते प्रकारनो
व्यवहार छे छतां शुद्धस्वभावनी द्रष्टिमां तेनुं कर्तृत्व छूटी गयुं छे–एवा
साधकनी आ वात छे. निश्चयरत्नत्रयरूप मुनिदशारूपे आत्मा परिणमे त्यां देह
उपरथी वस्त्रादि छूटी ज गया होय ने दिगंबरदशा ज होय; त्यां वस्त्र छूटया
तेने आत्मा जाणनार छे, पण छोडनार नथी. आत्मा परने ग्रहनार के परने
छोडनार नथी; परपदार्थो तो त्रणेकाळे आत्माथी छूटा छे ज. छूटा छे ज तेने
छोडवुं शुं? ‘आ मारां’ एम अभिप्रायमां खोटी पक्कड करी हती, तेने बदले
छूटाने छूटा जाण्या एटले ‘आ मारां’ एवो मिथ्याअभिप्राय छूटी गयो,
मारापणानी मिथ्याबुद्धिनो त्याग थयो, ने परथी भिन्न एवा निजस्वरूपनुं
सम्यक्भान थयुं. आ रीते धर्मीने सम्यक्त्वादि निजभावनुं ग्रहण (अर्थात्
उत्पाद) अने मिथ्यात्वादि परभावनो त्याग (अर्थात् व्यय) छे. अने ज्यां
आवा ग्रहण–त्याग थया त्यां दुःखनुं वेदन रहेतुं नथी, एटले ते धर्मी जीव दुःख
वगेरे परभावनो भोक्ता पण नथी. अनुकूळ संयोगमां हर्षनी लागणी, ने
प्रतिकूळसंयोगमां खेदनी लागणी, तेनुं वेदन ज्ञानमां नथी, ज्ञाननुं स्वरूप हर्ष–
शोकथी रहित छे. तेवी लागणी थाय तेने ज्ञानी ज्ञानभावथी जाणे खरा के आवी
लागणी थई; पण मारुं ज्ञान ज हर्ष–शोकरूप थई गयुं एम कांई ज्ञानी नथी
जाणता. हर्षादिनी लागणी वखतेय तेनाथी रहित एवा अकारक–अवेदक ज्ञानरूपे
ज धर्मी पोताने ओळखे छे.