Atmadharma magazine - Ank 306
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : चैत्र : २४९प
उदयभावो तेनाथी बहार छे. जेटलुं शुद्धपरिणमन थयुं तेमां तो राग छे ज नहि. ते काळे
जे राग होय ते शुद्धज्ञानथी जुदापणे छे, एकपणे नहीं. चोथा गुणस्थाने पण शुद्धात्माने
अवलंबीने सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान–स्वरूपाचरण थयुं छे ते तो रागरहित ज छे.
‘त्यां राग छे तो खरो?’
–ते काळे राग हो तेथी शुं? आखी दुनिया छे, पण तेनाथी ज्ञान जुदुं छे, ज्ञान तेने
करतुं नथी. तेम रागनेय ज्ञान करतुं नथी, भोगवतुं नथी, जाणे ज छे. माटे सम्यग्द्रष्टिना
सम्यक्त्वादि जे निर्मळभावो छे ते तो रागथी मुक्त ज छे, जुदा ज छे. आत्मा परथी तो
जुदो हतो ज, ने स्वसन्मुख परिणति थतां ते रागथी पण जुदो थयो. राग रागमां छे पण
राग ज्ञानमां नथी, केम के ज्ञाने रागने पकडयो नथी; ज्ञानमां राग जणातां ‘आ राग हुं’
एवुं वेदन ज्ञानमां नथी थतुं, ‘हुं ज्ञान छुं’ एम ज्ञान तो पोताने ज्ञानपणे ज वेदे छे.
आवा ज्ञानवेदननी साथे आनंद छे, पण राग तेमां नथी.
अरे जीव! मोक्षना कारणरूप तारी निर्मळपर्याय केवी होय तेने ओळख तो खरो!
तारी मोक्षसंपदाने ओळखीश तो तेवी दशा प्रगट थशे. मोक्षना कारणरूप ते पर्याय
परभावोथी तो शून्य छे, ने पोताना शुद्धस्वभावने ज अवलंबनारी छे. अंतरमां झुकेली ते
पर्याय जगतना पदार्थोथी जुदी, देहथी जुदी, वचनथी जुदी, कर्मोथी जुदी, ने रागादि
भावकर्मोथी पण जुदी छे; पण ते ज्ञानथी भरपूर, श्रद्धाथी भरपूर, एम अनंत
निजभावोथी भरपूर छे. सम्यग्द्रष्टिनी संपदा कोई अनेरी छे. एनी चैतन्यसंपदा पासे
जगतनी कोई संपदानी किंमत नथी. जगतनी जडसंपदाओने धर्मात्मा पोतानी मानता
नथी. निजसंपदाथी भरपूर जे चैतन्यस्वभाव, तेना आश्रये पर्यायमां रत्नत्रयादि
निर्मळसंपदा प्रगटे छे, ने तेना वडे सिद्धपद पमाय छे. आ सिवाय पुण्यनी संपदा वडे
सिद्धपद पामी शकातुं नथी.
* समयसारनी गाथा ३२० उपरनां प्रवचनोनुं पुस्तक राजकोटमां
पू. गुरुदेवनी मंगल छत्रछायामां प्रकाशित थशे; एनुं नाम छे ‘ज्ञानचक्षु’
आत्मधर्मना ग्राहकोने ते श्री मोहनलाल कानजीभाई घीया तरफथी भेट मळवानुं छे.
*“वीतरागविज्ञान” पुस्तक कुपनवाळा ग्राहकोने भेट आपवानुं हजी चालु
ज छे; तो ते मेळवी लेशोजी.