: २६ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९प
त्यारे माथुं कंपवा लागे छे–जाणे के शरीर कंई काम करवानी ना पाडतुं होय! (आ रीते मूढ
जीव आत्माना हितनो उपाय कर्या वगर मनुष्यभव गुमावे छे.)
(६) ज्यारे मरण आवे त्यारे जोर चालतुं नथी, बोली पण शकतो नथी, एटले
मननी वात संज्ञा करी करीने बतावे छे. एम कुमरणे मरीने जो मंदकषाय होय तो
भवनवासी–व्यंतर के ज्योतिषी एवा हलका देवमां ऊपजे छे; त्यां बीजा मोटा देवनी
संपदा देखीने खूब झूरे छे अथवा विषयोनी रतिमां ज काळ गुमावे छे. आयुषना अंतमां
तेनी मंदारमाळा करमाई जाय छे ते देखीने जीव घणो ज पस्ताय छे. ने आर्त्तध्यानपूर्वक
देवलोकमांथी चवीने स्थावर (–एकेन्द्रिय) थाय छे.
(७) ए प्रमाणे अज्ञानथी संसारमां रखडतां जीवे अनंतकाळ सुधी पंचपरावर्तन
कर्या ने अनंत दुःख पाम्यो. तेमां काळलब्धिथी जिन....गुरुओनी कृपाथी ज्यारे आत्मा
पोते पोतानुं स्वरूप जाणे त्यारे ते बुधजन भवसमुद्रने तरीने निर्वाणरूप सिद्धपदमां
पहोंची जाय छे.
अहो, आ तो खरेखरी प्रयोजनभूत,
स्वानुभवनी उत्तम वात छे. स्वानुभवनी आवी
सरस वार्ता पण महाभाग्ये ज सांभळवा मळे छे,
ने ए अनुभवदशानी तो शी वात!
मोक्षमार्गनुं उद्घाटन निर्विकल्प–स्वानुभव
वडे थाय छे.
आत्मानो स्वानुभव थतां समकिती जीव
केवळज्ञानी जेटलो ज निःशंक जाणे छे के आत्मानो
आराधक थयो छुं ने प्रभुना मार्गमां भळ्यो छुं,
स्वानुभव थयो ने भवकटी थई गई; हवे अमारे
आ भवभ्रमणमां रखडवानुं होय नहि. –आम
अंदरथी आत्मा पोते ज स्वानुभवना पडकार
करतो जवाब आपे.