: २ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९प
निर्जरारूप जे वीतराग पर्याय थाय, जे क्षायकादि भाव थाय ते पण पर्यायपणे रह्या छे,
पण ते धु्रव स्वभावरूप थया नथी. आवो जे एकरूप धु्रवस्वभाव छे ते निश्चयथी शुद्धभाव
छे, ते ज परमार्थ जीव छे, अने ते ज उपादेय छे. अंतरमां तेने लक्षगत करीने उपादेय
करवो ते अपूर्व मंगळ छे.
फत्तेपुर पछी ११ दिवस बाद आजे गुरुदेवनां प्रवचनो फरी शरू थतां सौने हर्ष
थयो हतो. शुद्धात्मरसनी अमीधार वरसावतो मेहूलो मधुर नादे गाजे छे, ने हजारो
तरस्या जीवोनी तृषा छीपावे छे.
बपोरना समये निवृत्तिथी स्वाध्याय करतां–करतां वच्चे वैराग्यना अनेक प्रसंगोने
याद करीने गुरुदेवे कह्युं के अरे, छखंडना राजने छोडीने चक्रवर्ती धर्मात्मा मुनि थता हशे–
ए दशा केवी! भेदज्ञान करीने अंतरमां भिन्न आत्माने जाण्यो; त्यां ‘अमारुं छे ते अमे
साथे लईने जईए छीए; ने जे अमारुं हतुं ज नहि तेने अमे अहीं छोडीने जईए छीए,
अमारा ज्ञान ने आनंदमां अमे जईए छीए. –एम धु्रवस्वभावमां एकाग्रता वडे ज्ञान ने
आनंद एकसाथे प्रगटे छे.
आ वात भाषा मात्र नथी, अंदर भाव प्रगटवो जोईए. खरी कसोटीनो प्रसंग
आवे त्यारे अंदरना कसनी खबर पडे. आम गुरुदेव पासे वैराग्यपूर्ण विविध चर्चाओ
थती हती. ‘ज्ञानचक्षु’ पुस्तक माटे हस्ताक्षर करी आपतां गुरुदेवे लख्युं के–
“ज्ञान छे ते अविनाभावी आनंदवाळुं छे, तेथी धु्रवस्वरूपनो आश्रय करतां ज्ञान
अने आनंद एकीसाथे प्रगट थाय छे.”
बपोरना प्रवचनमां पंचास्तिकायनी १६३ मी गाथा वंचाणी हती. तेमां
सर्वज्ञस्वभावनो अपार महिमा समजावतां गुरुदेवे कह्युं के–आत्मानो स्वभाव पूर्ण ज्ञान
ने आनंदथी भरेलो छे. एवो द्रव्यस्वभाव छे ने तेनो आश्रय करतां ज्ञान ने आनंद
पर्यायमां एकसाथे प्रगटे छे. धु्रवस्वभाव जेवो छे तेवो तेनो अनुभव–लक्ष–श्रद्धा
भव्यजीवने ज होय छे, अभव्यजीवोने तेनो अनुभव होतो नथी. अंतरमां
ज्ञानानंदस्वभावनी सन्मुख थतां पूर्ण ज्ञान ने पूर्ण आनंदनी प्रतीत ने अनुभव थाय छे;
ने त्यारे सर्वज्ञनी खरी ओळखाण थाय छे.
अहो! दरेक आत्मा सर्वज्ञस्वभावे पूरो छे. जीव एक अखंड संपूर्ण द्रव्य होवाथी
तेनुं ज्ञानसामर्थ्य परिपूर्ण छे, अंतर्मुख थईने तेनो पूरो आश्रय लेतां