: ६ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९प
त्रिशला घेर महावीर जन्म्या रे...... ए चैतर तेरस अजवाळी......
त्यां बहु देव–देवी आवे रे........चैतर तेरस अजवाळी........
पांसठ वर्ष पहेलां आ भजन गाता. त्रिशलानी कुंखे अवतरीने जगतना
प्राणीओने धर्मनो सन्देश आप्यो. कुदरतनो अनादि नियम छे के ज्यां जगतना घणा जीवो
धर्मनी तैयारीवाळा थाय त्यां तीर्थंकर जेवा महात्मा पण पाके. कांई जगतना उद्धार खातर
कोई परमात्मा नवो अवतार धारण करता नथी, पण परमात्मपदनो साधक कोई विशिष्ट
आत्मा उन्नतिक्रममां आगळ वधतो पोते परमात्मा थाय छे, ने तेना निमित्ते अनेक जीवो
पण भवथी तरे छे.
अरे, भगवान जन्मे त्यारे तो ईन्द्र–ईन्द्राणी आवीने अलौकिक भक्तिथी मोटो
महोत्सव करे छे. एनां पुण्यनी शी वात! ईन्द्र अने ईन्द्राणी अभिषेक पछी माताजीने
सोंपता प्रार्थना करे छे के हे माता!
पुत्र तमारो धणी अमारो.....तरणा तारण जहाज रे......
माता जतन करीने राखजो....तम पुत्र अम आधार रे.....
अहो, माता! आपनो पुत्र ते जगतनो तारणहार छे......हे माता! तुं एकला
महावीरनी माता नहि पण अमारी–आखा जगतनी माता छो. हे रत्नकूंखधारिणी माता!
आपने पण अमे नमस्कार करीए छीए. भगवाननी माता पण एकभवे मोक्ष पामनारी
छे, ईन्द्र–ईन्द्राणी पण एक भवतारी छे, त्यांथी मनुष्य थईने मोक्ष जवाना छे. एवा ईन्द्र
वगेरे पण परम भक्तिथी भगवानना जन्मनो महोत्सव करे छे. एवा भगवाननो
जन्मदिवस आजे छे.
पछी भगवाने ३० वर्षनी कुमार अवस्थामां ज मुनिपणुं प्रगट कर्युं, चैतन्यमां
झूलती अप्रमत्तदशा प्रगट करी, ने चार ज्ञान प्रगट्या.......पछी स्वरूपमां लीन थई, श्रेणी
चडी, केवळज्ञान प्रगट करी परमात्मा थया, अरिहंत थया....ने पछी सहजपणे, ईच्छा
वगर, जगतना भव्यजीवोना महान भाग्ये, भगवाननी दिव्यवाणी छूटी....ते सांभळीने
घणा जीवो धर्म पाम्या....
भगवान महावीरे दिव्यवाणीमां शुं कह्युं? ‘अहिंसा परमो धर्म’ –अहिंसा ए परम
धर्म छे.....आ वीरनो उपदेश छे. चैतन्यस्वभाव आत्मामां रागद्वेषना भावो’ उत्पन्न ज न
थाय ने वीतरागभाव रहे–ते ज वीरनी अहिंसा छे, ने ते ज धर्म छे–