
लागतो होवाथी तेओश्रीए योग्य समये काठियावाडना सोनगढ नामना गाममां त्यांना
एक गृहस्थना खाली मकानमां सं. १९९१ ना चैत्र सुद १३ ने मंगळवारने दिने
‘परिवर्तन’ कर्युं. –स्थानकवासी संप्रदायनुं चिह्न जे मुहपत्ति तेनो त्याग कर्यो. संप्रदाय
त्यागनाराओने केवी केवी अनेक महाविपत्तिओ पडे छे, बाळ जीवो तरफथी अज्ञानने
लीधे तेमना पर केवी अघटित निंदानी झडीओ वरसे छे, तेनो तेमने संपूर्ण ख्याल
हतो, पण ते नीडर ने निस्पृह महात्माए तेनी कांई परवा करी नहि. संप्रदायना हजारो
श्रावकोना हृदयमां महाराजश्री अग्रस्थाने बिराजता हता तेथी घणा श्रावकोए
महाराजश्रीने परिवर्तन नहि करवा अनेक प्रकारे प्रेमभावे वीनव्या हता. परंतु जेना
रोमे रोममां वीतरागप्रणीत यथार्थ सन्मार्ग प्रत्ये (सम्यक् दिगंबर जैन धर्म प्रत्ये)
भक्ति ऊछळती हती ते महात्मा ए प्रेमभरी विनवणीनी असर हृदयमां झीली, रागमां
तणाई, सत्ने केम गौण थवा दे? सत् प्रत्येनी परम भक्तिमां सर्व प्रकारनी
प्रतिकूळतानो भय ने अनुकूळतानो राग अत्यंत गौण थई गया. जगतथी तद्न
निरपेक्षपणे, हजारोनी मानवमेदनीमां गर्जतो सिंह सत्ने खातर सोनगढना एकांत
स्थळमां जईने बेठो.
निर्जन स्थळमां मात्र (महाराजश्रीना परमभक्त) जीवणलालजी महाराज साथे अने
कोई दर्शनार्थे आवेला बे चार मुमुक्षुओ साथे स्वाध्याय, ज्ञान ध्यान वगेरेमां लीन
थयेला महाराजश्रीने जोतां हजारोनी मानवमेदनी स्मृतिगोचर थती अने ते
जाहोजलालीने सर्पकंचुकवत छोडनार महात्मानी सिंहवृत्ति, निरीहता अने निर्मानता
आगळ हृदय नमी पडतुं.
महाराजश्री १९९१ नी साल सुधीमां काठियावाडमां लगभग दरेक स्थानकवासीना
हृदयमां पेसी गया हता, महाराजश्री पाछळ काठियावाड घेलुं बन्युं हतुं. तेथी
महाराजश्रीए जे कर्युं हशे ते समजीने ज कर्युं हशे’ एम विचारीने धीमे धीमे घणा लोको
तटस्थ थई गया. केटलाक लोको सोनगढमां शुं चाले छे ते जोवा आवता, पण
महाराजश्रीनुं परम पवित्र जीवन अने अपूर्व उपदेश सांभळी तेओ ठरी जता,