
‘आ जैन धर्मनो एकडो ज छे. समजण करवी ते ज शरूआत छे. मेट्रिकनी ने एम. ए.
नी एटले के निर्गं्रथदशानी ने वीतरागतानी वातो तो आघी छे. आ समजण कर्ये ज
छूटको छे. एक भवे, बे भवे, पांच भवे के अनंत भवे आ समज्ये ज मोक्षमार्गनी
शरूआत थवानी छे.
नवी नवी ज्ञानशैली सोनगढमां खूब खीली. अमृतकळशमां जेम अमृत घोळातां होय
तेम गुरुदेवना परम पवित्र अमृतकळशस्वरूप आत्मामां तीर्थंकरदेवनां वचनामृतो खूब
घोळायां–घूंटयां. ए घूंटायेला अमृत कृपाळुदेव अनेक मुमुक्षुओने पीरसे छे ने न्याल करे
छे. समयसार, प्रवचनसार वगेरे ग्रंथो पर प्रवचन करतां गुरुदेवना शब्दे शब्दे एटली
गहनता, सूक्ष्मता अने नवीनता नीकळे छे के ते श्रोताजनोना उपयोगने पण सूक्ष्म
बनावे छे अने विद्वानोने आश्चर्यचकित करे छे. जे अनंत आनंदमय चैतन्यघन दशा
प्राप्त करीने तीर्थंकरदेवे शास्त्रो प्ररूप्यां, ते परम पवित्र दशाने सुधास्यंदी
स्वानुभूतिस्वरूप पवित्र अंश पोताना आत्मामां प्रगट करीने सद्गुरुदेव विकसित
ज्ञानपर्याय द्वारा शास्त्रमां रहेलां गहन रहस्यो उकेली, मुमुक्षुने समजावी अपार उपकार
करी रह्या छे. सेंकडो शास्त्रोना अभ्यासी विद्वानो पण गुरुदेवनी वाणी सांभळी उल्लास
आवी जतां कहे छे: ‘गुरुदेव! अपूर्व आपनां वचनामृत छे: तेनुं श्रवण करतां अमने
तृप्ति थती ज नथी. आप गमे ते वात समजावो तेमांथी अमने नवुं नवुं ज जाणवानुं
मळे छे. नव तत्त्वनुं स्वरूप के उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यनुं स्वरूप, स्याद्वादनुं स्वरूप के
सम्यक्त्वनुं स्वरूप, निश्चयव्यवहारनुं स्वरूप के व्रतनियमतपनुं स्वरूप, उपादान–
निमित्तनुं स्वरूप के साध्य–साधननुं स्वरूप, द्रव्यानुयोगनुं स्वरूप के चरणानुयोगनुं
स्वरूप, गुणस्थाननुं स्वरूप के बाधक–साधकभावनुं स्वरूप, मुनिदशानुं स्वरूप के
केवळज्ञाननुं स्वरूप–जे जे विषयनुं स्वरूप आपना मुखे अमे सांभळीए छीए तेमां
अमने अपूर्व भावो द्रष्टिगोचर थाय छे. अमे शास्त्रोमांथी काढेला अर्थो तद्न ढीला,
जड–चेतनना भेळसेळवाळा, शुभने शुद्धमां खतवनारा, संसारभावने पोषनारा,
विपरीत अने न्यायविरुद्ध हता; आपना अनुभवमुद्रित अपूर्व अर्थो टंकणखार जेवा–
शुद्ध सुवर्ण जेवा, जड चेतनना फडचा करनारा, शुभ ने शुद्धनो स्पष्ट विभाग करनारा,
मोक्षभावने ज पोषनारा; सम्यक्