* श्री कहान–रत्नचिंतामणि–जयंतिमहोत्सव विशेषांक *
: २८ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९प
तेनो कोई कोई भाग गुरुदेव कहेता, जे सांभळी मुमुक्षुओने खूब प्रमोद थतो. आजे तो
सोनगढमां केटलाय भाईबहेनो धवल–जयधवलनी पण स्वाध्याय करे छे.
राजकोटमां सं. १९९९ नुं चोमासुं कर्या पछी सोनगढ तरफ पधारती वखते
वच्चे अनेक गामोने गुरुदेवे पावन कर्या. गामेगामनी जनता जे उत्साह बतावती ते
अद्भुत हतो. ‘कानजीस्वामी’ नुं नाम सांभळतां गामना लोको एमना दर्शननी जिज्ञासा
रोकी शकता नहि, ने आखा गाममां कोई अनेरा उत्सवनुं वातावरण छवाई जतुं.
यह सन्तोंका धाम है
गुरुदेवना प्रतापथी सोनगढनी सुरत धीमे धीमे पलटावा लागी. सोनगढनुं
शांतअध्यात्म वातावरण अने भरचक धार्मिक कार्यक्रमो जोईने बहारथी आवेला
जिज्ञासुओ मुग्ध बनी जाय छे, ने सोनगढमां रहे एटला दिवसो तो बहारनी दुनियाना
वातावरणने लगभग भूली जाय छे, कोई नवुं ज जीवन एने प्राप्त थाय छे. ठंडा
प्रदेशोना लोको तो राड पाडी जाय एवी सख्त गरमी पण, अध्यात्मनी शीतळतामां
वसता ए मुमुक्षुने जाणे असर करी शकती नथी. धर्मात्माओ, विद्वानो, ब्रह्मचारी भाई–
बहेनो, श्रीमानो, वृद्धथी मांडीने बाळक सुधीना तत्त्वप्रेमी जिज्ञासुओ, संसारनी
अनेकविध प्रतिकूळताना पहाड वच्चेय अध्यात्मप्रेममां अणनम रहेला मुमुक्षुओ धर्मप्रेम
खातर संसारना संबंधोने ठोकर मारी संतनी छायामां सोनगढ वसनारा जिज्ञासु
भक्तजनो एवा अनेक महानुभावो पोतपोतानी विविध विशेषता धरावे छे,–ए रीते
सोनगढनो ‘जीवंत वैभव’ अपार छे, परंतु अहीं कोईनो व्यक्तिगत परिचय आपवानुं
उचित मानता नथी; गुरुदेवनी शोभामां आखा सोनगढथी शोभा समाई जाय छे.
सोनगढमां जे उत्सवो उजवाय छे ते अनेरा भावोथी भरपूर होय छे; मात्र
रूढिगत रीते नहि पण ते–ते उत्सवने भावभीना वातावरणमां प्रसंगो उजवाय छे, जेथी
ते–ते प्रसंगो ताद्रशरूप थाय छे. प्रतिष्ठाना दिवसो के पर्युषणना दिवसो श्रुतपंचमी के
वीरशासनजयंती, नंदीश्वरअष्टाह्निका के महावीरजन्मोत्सव, दीपावली के रथयात्रा,
सिद्धचक्रविधान वगेरे प्रसंगो खास अनेरी शैलीथी उजवाता होय छे. हंमेशना चालु
दैनिक कार्यक्रमो–दर्शन, पूजन, प्रवचन, भक्ति, तत्त्वचर्चा, शास्त्रस्वाध्याय वगेरेमां पण
बधा जिज्ञासुओ रसपूर्वक उत्साहपूर्वक जिज्ञासाथी भाग लेता होय छे. वहेली सवारथी
मोडी रात सुधी आवी उच्चप्रवृत्तिओमां आखोय दिवस केवी रीते पसार थई जाय छे
तेनी जाणे खबर पडती नथी. थोडा दिवस अहीं रहेनार जिज्ञासुने पछी बीजे ठेकाणे जवुं
गमतुं नथी. खरेखर! अध्यात्मनी साधनाने अनुरूप शांति संतोना आ धाममां भरी छे.
अहीं आवतां ज मुमुक्षुना हृदयमांथी ध्वनी ऊठे छे के ‘यह सन्तोंका धाम है....’