: ३८ : आत्मधर्म : जेठ : २४९प
प्रमोदपूर्वक गुरुदेवना हृदयमांथी जे उद्गारो नीकळ्या ते सांभळतां गुरुदेवना महान
अनुग्रहनो ख्याल आवतो हतो. ने आ आनंदप्रसंगनी यादीमां प्रमुखश्री तरफथी
संपादकने एक सुवर्णचंद्रक आपवामां आव्यो हतो. आत्मधर्मनो हंमेशां एक ज उदे्श छे
के जे आत्महितकारी परमसत्य उपदेश गुरुदेव आपणने संभळावी रह्या छे ते सर्वे
जिज्ञासुओ सुधी पहोंचे, अने गुरुदेवनो सत्यमहिमा जीवोने लक्षगत थाय. आ उद्देश
सफळ थयो छे ने हजारो जिज्ञासुओ तेनो लाभ अत्यंत प्रेमथी लई रह्या छे.
गुरुदेवद्वारा थई रहेली महान प्रभावनामां ‘आत्मधर्म’ नो महत्वनो फाळो छे अने
आत्मधर्म पण तेनुं अंग बनी गयुं छे. एना ‘बालविभाग’ द्वारा हजारो बाळकोमां
नानपणथी ज धर्मना ऊंडा संस्कार रेडाई रह्या छे. एना मोटा भागना सभ्यो हंमेशां
जिनेन्द्रदेवनां दर्शन करे छे, रात्रिभोजन छोडी दीधुं छे, सिनेमा जोता नथी, रोज
तत्त्वनो अभ्यास करे छे, ने जैनशासननी सेवा करवा माटे खूब आतुर छे. पोताने
‘जिनवरना सन्तान’ कहेतां ते गौरव अनुभवे छे. एक तरफ गुरुदेवना प्रतापे श्रुतनां
महान रहस्यो खूलतां गयां ने वधु ने वधु श्रुत प्रभावना थती गई, तो बीजी तरफथी
बराबर ए ज अरसामां, पूर्वना वीतरागी सन्तोए गूंथी राखेलुं दिव्यध्वनि साथे
संधिवाळुं श्रुत पण भंडारोमांथी बहार आव्युं ने पुस्तकोरूपे छपाई–छपाईने गुरुदेवना
हाथमां आववा लाग्युं; ए वांचीने गुरुदेव अत्यंत प्रमोदित थता, ने तेमांथी कोई
अवनवा अपूर्व न्यायो ज्यारे प्रवचनमां कहेता त्यारे श्रोताजनो पण खूब उल्लसित
थता अने अत्यंत बहुमानथी एवी भावना थती के अहा, तीर्थंकरनी ए दिव्यध्वनि
केवी हशे! ने एनुं रहस्य झीलनारा वीतरागी सन्तो केवा हशे! एमना प्रत्ये परम
भक्तिथी हृदय नमी पडतुं. विनयवान शिष्य मतिज्ञानना बळथी केवळज्ञानने बोलावे
छे; मतिज्ञान ते केवळज्ञाननो अंश छे; अंशद्वारा पूर्णनी प्रत्यक्षता थाय छे; वस्तु पोते
पोताना विशेष अंशरूपे परिणमे छे, ते विशेष परमांथी आवतुं नथी; मुनिवरोने
निश्चय प्रत्याख्यानमां आहारादिनी वृत्तिनो पण त्याग. –वगेरे अनेक विषयोनुं
रोमांचकारी वर्णन षट्खंडागम वगेरेमांथी अवारनवार गुरुदेव प्रवचनमां कहे छे.
गुरुदेव कहे छे के भगवाननी सीधी वाणी आ शास्त्रोमां गूंथायेली छे. आनाथी विरुद्ध
बीजा लोकोए भगवानना नामे शास्त्रो बनाव्यां छे, पण ए भगवाननी वाणी नथी.
आमां भगवाननी वाणी भवना अंतनो भणकार करती आवे छे. ए ज रीते पर्युषण
वगेरे प्रसंगे दसलक्षणधर्म वगेरेनुं स्वरूप अनेरी शैलीथी समजावीने गुरुदेव जैनधर्मनुं
खरुं हार्द समजावे