: जेठ : २४९प आत्मधर्म : ३ :
छे. रागनी ममता पण रहे ने भेदज्ञान पण थाय–एम बने नहि. भेदज्ञान थवां वेंत
समस्त रागनी रुचि छूटी जाय छे.
कोई पूछे छे के अमारे करवुं शुं? भाई! आवुं भेद ज्ञान करवुं. ज्ञान अने
रागनी भिन्नतानो निर्णय करवो. आ ज सुखी थवानो ने दुःखथी छूटवानो मार्ग छे.
जुओ, हजी तो सम्यग्दर्शन पामवा माटे आत्मानो साचो निर्णय करनारा पण
आवो निर्णय करे छे के रागादि व्यवहारना अवलंबन वगर स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष थाउं
एवो हुं छुं. –तो पछी आगळ जतां उपरना गुणस्थाने व्यवहारना अवलंबनथी लाभ
थाय–ए वात क्यां रही? वच्चे राग आवशे पण ते राग मोक्षमार्गमां साधक नथी पण
बाधक छे; शुद्ध ज्ञानरूप जे मोक्षमार्ग, तेनाथी विरुद्ध रागादि बंध भावो छे. –आम
बंनेना स्वभावनुं अत्यंत जुदापणुं नक्की करीने, ज्ञानस्वभाव तरफ वळतां मोक्षमार्ग
थाय छे ने आनंद अनुभवाय छे.
ज्ञानस्वभाव तो धु्रव छे–शरण छे; ज्ञानस्वभावपणे तो जीव सदाय टकनारो छे;
ने रागादि शुभाशुभ भावो तो क्षणभंगुर, अस्थिर, अधु्रव ने अशरण छे; ते रागादि
भावो कायम जीवमां टकनारा नथी. आम जाणीने अनित्य एवा रागादि भावो तरफथी
पाछो वळे ने नित्य ज्ञानस्वभाव तरफ ढळे–त्यारे जीवने भेदज्ञान थाय छे, त्यारे तेने
आस्रवो छूटी जाय छे. –आनुं नाम धर्म छे.
ज्ञान तो आत्मानो सहज स्वभाव छे, ते कांई नवुं नथी थतुं; ने रागादि भावो
आत्मानो स्वभाव नथी, ते तो कृत्रिम नवा उत्पन्न थाय छे, अने तेना अभावमां पण
आत्मा टकी रहे छे. ज्ञान विना आत्मा टकी न शके. एटले ज्ञाननो निषेध न थई शके.
पण रागादि तो भिन्न स्वभाववाळा होवाथी तेनो निषेध करवामां आव्यो छे, तेना
अभावमां आत्मा आनंदस्वरूपे टकी रहे छे. आत्मानो ज्ञानस्वभाव तो सहज निराकुळ
आनंदस्वरूप छे, ने रागादिभावो आकुळतारूप छे, दुःखरूप छे. भाई, तुं अंतरमां
विचार करीने जो के रागादिनुं वेदन केवुं छे? –शांतिरूप छे के दुःखरूप छे? रागादिनुं
वेदन आकुळतारूप छे. दुःखरूप छे, तेनुं फळ पण दुःख छे. अने तारो सहज
ज्ञानस्वभाव तो निराकुळ शांत सुखरूपे अनुभवाय छे, ते अनुभवनुं फळ पण सुख छे.
–आम अंतरना वेदनमां ज्ञान अने रागना स्वादनी भिन्नता जाण. बहारना जड
पदार्थोनी तो वात ज शी? एमां सुख माने ते तो तीव्र मोहमां मुर्छाई गयेला छे; पण
अंदर शुभ रागनी