: ५८ : आत्मधर्म : जेठ : २४९प
बंने एकबीजाने प्रेमथी एम कहेता होय के आपणे वीतरागनां सन्तान, आपणने
परस्पर कलेश न शोभे, आपणे तो संपथी हळीमळीने वीतरागतानी ज उपासना
करवानी छे. आपणा भगवान पारसनाथे पण आपणने वीतरागता ज शीखवी छे.
प्रभुना ए मार्गे जईए ने आत्माने ओळखीए तो ज आपणे पारसनाथना साचा
उपासक –आ बे भाईनी माफक बे जिनालयो शिखरबंध शोभी रह्या छे. तेमांथी एक
जिनालयमां बिराजमान पार्श्वनाथ भगवानने सवारना ६ थी ९ सुधीना त्रण कलाक
निराभरण दशामां दिगंबर भाईओ पूजे छे, ने बाकीना समयमां साभरणदशामां
श्वेतांबर भाईओ पूजे छे. पासेनी देरीओमां क्यांक दिगंबर जिनबिंबो खड्गासन
दशामां देखाय छे. बीजुं जिनमंदिर दिगंबर समाजनुं छे, तेनो जीर्णोद्धार करवामां
आव्यो छे, ने नवीन कमल वेदी पर रणासणमां प्रतिष्ठित भगवान पारसनाथनी
सवापांच फूट ऊंची अति मनोज्ञ प्रतिमा बिराजे छे. रणासणमां फागण वद त्रीजे
प्रतिष्ठा थया बाद तरत मक्षीजीमां बिराजमान करवामां आव्या अने हजारो
भक्तजनो–दर्शन–पूजननो लाभ लेवा लाग्या. भगवाननी प्रतिष्ठानो विशेष महोत्सव
वेदी प्रतिष्ठानी विधिपूर्वक वैशाख वद ६–७ ना रोज मक्षीजीमां कहानगुरु सान्निध्यमां
उजवायो. दशहजार उपरांत दिगंबर जैनोए तेमां भाग लीधो. घणा लोको कहेता के
मक्षीजीमां आवो भव्य उत्सव कदी थयो नथी. बे दिवस पू. श्री कानजीस्वामीनां
प्रवचनो पण अलौकिक थया.
प्रवचनमां वीतरागमार्गना पडकारपूर्वक गुरुदेव कहे छे के रागनी रुचिवाळा
प्राणीओ वीतरागमार्गने ओळखी शकशे नहि. जे मार्गे सिंह संचर्या ते मार्गे हरणीयां
नहि जई शके, तेम मोक्षना जे मार्गे वीतरागी सन्तो संचर्या ते मार्गे रागनी रुचिवाळी
अज्ञानीओ नहि जई शके. पहेलां तो रागथी भिन्न चिदानंदस्वभाव शुंं छे तेनो निर्णय
करवो जोईए. शुद्धज्ञानानंदस्वरूप आत्माने अनुभवनार जीव रागादि परभावरूपे
परिणमतो नथी; एवा परिणमन वडे धर्मी जाणे छे के हुं शुद्ध छुं. ज्ञान ने आनंद ज
मारो स्वभाव छे.
शुभाशुभभावोनी प्रवृत्ति दुःखरूप छे; तेनाथी पार ज्ञानानंद स्वरूपनो निर्णय
अने अनुभव करतां सम्यग्दर्शन थाय छे. चैतन्यना शांत अविकारी आनंदरसनुं तेमां
वेदन थाय छे. आत्मानो स्वभाव रागरूप कदी थयो नथी, एटले धर्मी रागने जाणवा
छतां तेना स्वामीपणे परिणमता नथी, ज्ञानना ज स्वामीपणे परिणमे छे. ‘धर्मीने राग
थयो’ एम कहेवुं ते उपचार छे, खरेखर धर्मी पोते रागरूप थयो नथी, धर्मी ते धर्मी