
रहुं छुं. –आ रीते स्वभावमां लीन थयेलो आत्मा, साधु होवा छतां पण साक्षात्
सिद्धभूत छे. आचार्यदेव कहे छे के अहो! आवा निजात्माने सदाय स्वयमेव भाव
नमस्कार हो......तेमज सिद्धस्वरूप परमात्माओने भावनमस्कार हो.
पण ते दशा अंगीकार करवानो उपदेश आचार्यदेवे (५ीजा अधिकारमां) आप्यो छे के–में
जे रीते शुद्धात्माना ज्ञान–श्रद्धानपूर्वक शुद्धोपयोगरूप श्रामण्यने अंगीकार कर्युं तेम बीजा
पण जे आत्माओ दुःखथी छूटवा मांगता होय तेओ आवा श्रामण्यने अंगीकार करो.
तेनो मार्ग अमे जोयेलो छे, अनुभवेलो छे; ते यथानुभूत मार्गना प्रणेता अमे आ रह्या.
पर्याय जेटलुं ज ज्ञेय नथी,
ज्ञाता–ज्ञेय–ज्ञान वच्चे पण भेद नथी, त्यां बहारना विकल्पनी के देहनी
तो वात ज क्यां रही?
संतोए स्वानुभवनी कळा जगत पासे प्रसिद्ध करीने खुल्ली मुकी छे.
आखा जीवने ज्ञेय बनावीने तेनो ज्ञाता था. हुं ज्ञेय, ने हुं ज्ञाता ने हुं
मने जाणुं–एवा भेद पण ज्यां रहेता नथी एवो स्वानुभव तुं कर