Atmadharma magazine - Ank 308a
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. अषाड : २४९प आत्मधर्म : २१ :
आ रीते भेदज्ञानना बळथी ममत्व छोडीने, निर्ममपणे हुं मारा ज्ञायक स्वभावमां ज
रहुं छुं. –आ रीते स्वभावमां लीन थयेलो आत्मा, साधु होवा छतां पण साक्षात्
सिद्धभूत छे. आचार्यदेव कहे छे के अहो! आवा निजात्माने सदाय स्वयमेव भाव
नमस्कार हो......तेमज सिद्धस्वरूप परमात्माओने भावनमस्कार हो.
जुओ तो खरा आ साधुदशा! आवी दशानुं नाम साधुपणुं छे, ते तो साक्षात्
सिद्धभूत छे. आवी शुद्धात्मामां प्रवृत्तिरूप साधुदशा पोतामां प्रगट करीने बीजा जीवोने
पण ते दशा अंगीकार करवानो उपदेश आचार्यदेवे (५ीजा अधिकारमां) आप्यो छे के–में
जे रीते शुद्धात्माना ज्ञान–श्रद्धानपूर्वक शुद्धोपयोगरूप श्रामण्यने अंगीकार कर्युं तेम बीजा
पण जे आत्माओ दुःखथी छूटवा मांगता होय तेओ आवा श्रामण्यने अंगीकार करो.
तेनो मार्ग अमे जोयेलो छे, अनुभवेलो छे; ते यथानुभूत मार्गना प्रणेता अमे आ रह्या.
(नमस्कार हो.......श्रामण्य मार्गना प्रणेता वीतरागी सन्तोने)
स्वानुभवनी कळा
ज्ञाता–ज्ञेय–ज्ञानरूप अखंड वस्तु एक छे.
पर्याय जेटलो ज ज्ञाता नथी,
पर्याय जेटलुं ज ज्ञेय नथी,
पर्याय जेटलुं ज ज्ञान नथी.
अखंड वस्तु वेद्य–वेद्यकरूप थईने स्वसंवेदनवडे पोते पोताने
जाणे छे.–तेथी पोते ज ज्ञेय, पोते ज ज्ञान, ने पोते ज ज्ञाता छे. ज्यां
ज्ञाता–ज्ञेय–ज्ञान वच्चे पण भेद नथी, त्यां बहारना विकल्पनी के देहनी
तो वात ज क्यां रही?
भाई, ज्ञाता–ज्ञेय–ज्ञानने अभेदपणे पोतामां समावीने अनुभव
करवो –ते तारे करवानुं छे. आमां स्वसन्मुख ज्ञानउपयोग छे. अहो!
संतोए स्वानुभवनी कळा जगत पासे प्रसिद्ध करीने खुल्ली मुकी छे.
आखा जीवने ज्ञेय बनावीने तेनो ज्ञाता था. हुं ज्ञेय, ने हुं ज्ञाता ने हुं
मने जाणुं–एवा भेद पण ज्यां रहेता नथी एवो स्वानुभव तुं कर
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