: प्र. अषाड : २४९प आत्मधर्म : २५ :
(३९) ज्ञान शुं करे?
ज्ञान रागादिने जाणे खरुं पण करे नहीं.
(४०) ज्ञान रागादिने करे तो शुं थाय?
तो ते रागमां तन्मय थई जाय एटले अज्ञान थई जाय.
(४१) अज्ञान क्यारे मटे?
लक्षणनी भिन्नता वडे आत्माने रागथी जुदो जाणे त्यारे.
(४२) धर्मलब्धिनो अवसर क्यारे कहेवाय?
ज्यारे भेदज्ञान करीने स्वसन्मुख थाय ते धर्मलब्धिनो अवसर छे.
(४३) पुण्य–पापना कर्तृत्वथी जीव निवृत्त क्यारे थाय?
ज्यारे तेनाथी भिन्न ज्ञानस्वभावरूपे पोताने अनुभवे त्यारे.
(४४) जीव पोताने ज्ञानस्वरूपे क्यारे अनुभवे?
ज्यारे पुण्य–पापना कर्तृत्वने छोडीने अंतरमां वळे त्यारे.
(४प) पहेलां कर्तृत्व छूटे, के पहेलां ज्ञान थाय?
बंने एक साथे ज थाय छे.
(४६) पुण्य–पाप छोडीने आत्मानो अनुभव थई शके?
हा; अनंता जीवोए एवो अनुभव कर्यो छे; ने अत्यारे पण थई शके छे.
(विशेष आवता अंके)
आवो दुर्लभ अवसर पामीने पण हे जीव!
जो तें तारा स्वज्ञेयने न जाण्युं ने स्वाश्रये
मोक्षमार्ग न साध्यो तो तारुं जीवन व्यर्थ छे. आ
अवसर जशे तो तुं पस्ताईश....माटे जाग....ने
स्वहित साधवामां तत्पर था.