: २६ : आत्मधर्म : प्र. अषाड : २४९प
पं. बुधजनरचित छहढाळा (त्रीजी ढाल)
जेने अनुसरीने पं. दौलतरामजीए छहढाळा रची छे
ते पं. बुधजनरचित छहढाळानी आ ५ीजी ढाळ छे–जेमां
सम्यक्त्वनुं वर्णन छे. अगाउनी बे ढाळ अनुक्रमे
आत्मधर्म अंक ३०४ तथा ३०६ मां आवी गई छे.
(पद्धडी छंद)
(१) ईसविधि भववनके मांहि जीव,
वशमोह गहल सोता सदीव;
उपदेश तथा सहज ही प्रबोध,
तब जागो ज्यों रण उठत योध.
ए प्रमाणे संसाररूपी वनमां
मोहवश थयेलो जीव अचेत थईने सदा
घेरी निद्रामां सूतो छे. पण हवे
श्रीगुरुना उपदेशथी के सहज
(निसर्गथी) ते प्रतिबुद्ध थयो त्यारे,
जेम रणमां मूर्छित थयेल योद्धो फरीने
जागे –तेम मोहनिद्रा दूर करीने जाग्यो.
(२) तब चिंतत अपने मांहि आप, मैं
चिदानंद नहीं पुण्य पाप; मेरे
नाहीं है रागभाव, ये तो
आत्मभान करीने जाग्यो त्यारे
शुं थयुं? –के त्यारे पोताना अंतरमां
पोतानुं स्वरूप एवुं चिंतववा लाग्यो के
हुं चिदानंद छुं, पुण्य के पाप हुं नथी.
रागभाव पण मारो स्वभाव नथी, ते
तो कर्मवश ऊपजेलो विभाव छे.
(३) मैं नित्य निरंजन शिवसमान,
ज्ञानवरणी आच्छादा ज्ञान;
निश्चय शुद्ध ईक व्यवहार भेव,
गुण गुणी अंग अंगी अतेव.
हुं सिद्ध समान नित्य–
अविनाशी छुं, निरंजन छुं;
ज्ञानावरणीय कर्मथी मारुं ज्ञान
आच्छादित थयुं छे. निश्चयथी हुं शुद्ध
एक छुं, गुण–गुणी भेद के अंग–अंगी
भेद वगेरे भेदो व्यवहारथी छे.