: प्र. अषाड : २४९प आत्मधर्म : २७ :
(४) मानुष–सुर–नारक–पशुपर्याय,
शिशु–वृद्ध–जवान–वृद्ध बहु रूप
कहाय; धनवान–दरिद्री दशा राय,
यह तो विढम्ब मुझे ना सोहाय.
वळी मनुष्य–देव–नारकी ने पशु
पर्यायो, अथवा बाळक–युवान–वृद्ध वगेरे
अनेकरूप शरीरनी अवस्थाओ, धनवान
के दरिद्रीपणुं राजा के रंकपणुं–ते बधुं
विडंबना छे–उपाधि छे, –ते कांई मने प्रिय
नथी, –मारा शुद्ध स्वरूपमां ते कांई
शोभतुं नथी.
(प) स्पर्श–गंध–रस–वर्ण नाम, मेरे
नाहीं मैं ज्ञानधाम; मैं एकरूप
नहीं होत और, मुझमें
प्रतिबिंबित सकल ठौर.
स्पर्श–रस–गंध–वर्ण के नाम ते
मारां नथी, ते पुद्गलनां छे, हुं तो
ज्ञानधाम छुं, ज्ञाननुं घर छुं, हुं एकरूप छुं,
अन्यरूप थतो नथी, मारा ज्ञानमां समस्त
पदार्थो प्रतिबिंबित थई रह्या छे.
(६) तन पुलकित वर हर्षित सदीव,
ज्यों भई रंकग्रहनिधि अतीव;
जब प्रबल अप्रत्याख्यान थाय,
तब चित परिणति ऐसी उपाय.
–आवुं आत्मज्ञान अने सम्यक्
श्रद्धान थतां जीवो सदाय अतिशय प्रसन्न
थाय छे, –आनंदित थाय छे, ने हर्षथी
शरीर पण पुलकित थई जाय छे.–जेम
रंकना घरमां अखूट निधान प्रगटतां ते
प्रसन्न थाय तेम अंतरमां निजनिधानने
देखीने ते प्रसन्न थाय छे. आवुं
सम्यग्दर्शन थवा छतां ज्यां सुधी
अप्रख्याननी प्रबळता छे त्यां सुधी तेनी
चित्तपरिणति केवी होय छे ते हवे कहे छे.
(७) सो सुनों भव्य चित्तधार कान,
वर्णत मैं ताका विधि विधान;
शिव करें काज घरमाहिं वास,
ज्यों भिन्न कमल जलमें निवास.
हे भव्य जीवो! तमे चित्त दईने ते
सांभळो. ते अविरत–सम्यग्द्रष्टिना विधि
विधाननुं हुं वर्णन करुं छुं.
स्वानुभवबोधनो जेमने लाभ थयो छे
एवा ते जीवो घरमां वसता होवा छतां
शिवकाज करे छे अर्थात् मोक्षनो उपाय करे
छे; जेम जळमां कमळनो वास होवा छतां
ते जळथी भिन्न छे–अलिप्त छे, तेम
गृहवासमां रहेवा छतां धर्मी तेनाथी
उदास छे.