: प्र. अषाड : २४९प आत्मधर्म : २९ :
जिज्ञासुओने प्रिय एवो आ विभाग छेल्ला केटलाक
वखतथी आपी शक्या न हता; ते आ अंकथी फरी शरू थाय
छे. सौ कोई जिज्ञासुओ आ विभागमां भाग लई शके छे.
* मुंबईथी रमणिकभाई पोतानो प्रमोद व्यक्त करतां लखे छे के–“आत्मधर्म अंक
३०७मो मळ्यो. गुरुदेवना जीवन परिचय तथा मुंबईना
रत्नचिंतामणिमहोत्सवनां द्रश्योथी तथा वै. सु. बीजनां मंगलप्रवचनथी अंकने
जे मढयो छे अने संकलन कर्युं छे ते खरेखर अजोड छे; मुंबईना मुमुक्षुजनोनी
आत्मसंतोष ने ज्ञानतृषा तो संतोषाय छे, पण आवा अंकथी हिंदुस्तानना
मुमुक्षुजीवोना आत्माओ हर्षथी ऊछळी पडे–तेवुं प्रकाशन जोई आत्मामां
आनंदनो परिचय देखाय छे.्य (ता. १७–प–६९)
* आफ्रिकावाळा शेठश्री भगवानजी भाई पू. गुरुदेवना जीवनपरिचयनुं पुस्तक
वांचीने पोतानो खूब प्रमोद अने अभिनंदन व्यक्त करतां लखे छे के–गुरुदेवना
वीस वर्षना परिचयमां घणा उत्तम प्रसंगो जोया छे, ते उपरांत नहि जोयेला ने
नहि जाणेला घणा अवनवा प्रसंगो वांचीने आनंद थयो. आ जीवनपरिचय
लखीने घणुं उत्तम कार्य कर्युं छे......सत्पुरुषोनां चारि५ोनुं वर्णन आर्श्चय पमाडे
छे. आवुं सत् साहित्य सदा प्रकाशमां रहो.
* लाठीथी ईन्दुबेन भायाणी लखे छे–के आत्मधर्म वांचता अत्यंत हर्ष ऊभराय
छे, ने दुःख भूलीने धर्मद्रष्टिए आत्मावळी जाय छे.
* कवि दुला काग (पद्मश्री) लखे छे– ‘कळियुगना घोर अंधकारमां आपे एक
प्रकाशनुं पानुं उघाडयुं छे.’
* एक मुमुक्षु पूछे छे–आत्मभावनी रमणता साहजिक छे के प्रयत्नसाध्य?
प्रयत्नसाध्य छे; पण ते प्रयत्न सहज छे, अर्थात् देहाश्रित के रागाश्रित ते
प्रयत्न नथी, पोताना आत्माश्रित ते प्रयत्न छे; आ रीते बीजानी अपेक्षा
वगरनो होवाथी ते सहज छे. आ रीते आत्मा ज्यारे स्वसन्मुख प्रयत्न वडे
सहज भावमां रहे त्यारे तेने आत्मरमणता थाय छे, एटले के आनंदमय
आत्मअनुभव थाय छे.