Atmadharma magazine - Ank 308a
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : प्र. अषाड : २४९प
‘सहज’ नो अर्थ एवो नथी के आत्माना प्रयत्न वगर;–परंतु रागादि उपाधि
वगरनो भाव तेनुं नाम सहज छे.
* ज्ञानीद्रष्ट भावोनी जाणकारी आत्मरमणतामां कंई उपयोगी थाय खरी?
–जरूर; ज्ञानीए जे आत्मभावो जोया छे, अथवा स्व–परने जे रीते भिन्न जोया
छे ते रीते जाणकारी करीने ओळखतां आत्मज्ञान थाय छे ने आत्मरमणता पण
प्रगटे छे. अरिहंतनुं वास्तविकस्वरूप जे ओळखे तेने पोतानो शुद्धात्मा
ओळखाय ने सम्यग्दर्शन थाय–ए वात जिनागममां प्रसिद्ध छे.
एक वात लक्षमां राखवा जेवी छे के, आत्मा जडनी क्रियाओ करे के जडनी
क्रियाओ आत्माना धर्ममां कंई करे–एवुं तो ज्ञानीओए देख्युं नथी; छतां जे
एम माने तेणे ‘ज्ञानीद्रष्ट भावने’ जाण्या नथी, ज्ञानीद्रष्ट भावोथी विपरीत ते
माने छे. ज्ञानीओए तो जड–चेतनना भावोने सर्वथा भिन्नभिन्न देख्या छे ते
भिन्न भावो ने एकबीजा साथे कर्ताकर्मपणुं होतुं नथी.
* वडोदराथी रमेशभाई के. जैन लखे छे–
‘समस्त भारतवर्षमां मोक्षलक्षी जैनधर्मनी सुवास फेलावता मासिक
आत्मधर्मना बगीचामां दाखल थई जवा एक पुष्प (काव्यरूपे) मोकलुं छुं.’
गुरुदेवनां गुणगाननुं भाववाही काव्य मळ्‌युं छे, तेनो योग्य उपयोग करीशुं.
* वढवाणथी भाईश्री रसिकलाल धरमशी लखे छे–आत्मधर्म द्वारा अमने
गुरुदेवनी प्रसादी पहोंचाडी रह्या छो ते प्रशंसनीय छे. गुरुदेवनी वाणी अने
प्रभावना अलौकिक छे. तेमणे आजनी उछरती पेढीने सत्नो राह देखाडीने
भौतिकवादना अवनवा आकर्षणोमांथी मुक्त करी छे.
* मुंबईमां रत्नचिंतामणि–जन्मोत्सवमां द्रश्यों नजरे नीहाळीने गुरुदेव प्रत्ये
पोतानो प्रमोद व्यक्त करतां भाईश्री मुलचंदभाई तलाटी लखे छे के–साधकनी
द्रष्टिमां अणमोल अने अविनश्वर एवी आत्मिक सिद्धिनी ज प्रधानता होय छे;
आ जीवे एनी अनादिथी अवगणना करी छे; स्वसिद्धि अने निधिने भूलीने
अनित्य बाह्य रिद्धिना भ्रममां भरमायो छे. जीवे खरेखर निरंतर स्वसिद्धि
अने निधिनुं सम्यक्श्रद्धान् अने ज्ञान करवुं ए ज मा५ एक ज आत्मनिधि
अने सिद्धिने प्राप्त करवानो सम्यक्मार्ग छे. –जे मार्ग गुरुदेव आपणने देखाडी
रह्या छे.