
वगरनो भाव तेनुं नाम सहज छे.
–जरूर; ज्ञानीए जे आत्मभावो जोया छे, अथवा स्व–परने जे रीते भिन्न जोया
छे ते रीते जाणकारी करीने ओळखतां आत्मज्ञान थाय छे ने आत्मरमणता पण
प्रगटे छे. अरिहंतनुं वास्तविकस्वरूप जे ओळखे तेने पोतानो शुद्धात्मा
ओळखाय ने सम्यग्दर्शन थाय–ए वात जिनागममां प्रसिद्ध छे.
एक वात लक्षमां राखवा जेवी छे के, आत्मा जडनी क्रियाओ करे के जडनी
क्रियाओ आत्माना धर्ममां कंई करे–एवुं तो ज्ञानीओए देख्युं नथी; छतां जे
एम माने तेणे ‘ज्ञानीद्रष्ट भावने’ जाण्या नथी, ज्ञानीद्रष्ट भावोथी विपरीत ते
माने छे. ज्ञानीओए तो जड–चेतनना भावोने सर्वथा भिन्नभिन्न देख्या छे ते
भिन्न भावो ने एकबीजा साथे कर्ताकर्मपणुं होतुं नथी.
आत्मधर्मना बगीचामां दाखल थई जवा एक पुष्प (काव्यरूपे) मोकलुं छुं.’
गुरुदेवनां गुणगाननुं भाववाही काव्य मळ्युं छे, तेनो योग्य उपयोग करीशुं.
गुरुदेवनी प्रसादी पहोंचाडी रह्या छो ते प्रशंसनीय छे. गुरुदेवनी वाणी अने
प्रभावना अलौकिक छे. तेमणे आजनी उछरती पेढीने सत्नो राह देखाडीने
भौतिकवादना अवनवा आकर्षणोमांथी मुक्त करी छे.
द्रष्टिमां अणमोल अने अविनश्वर एवी आत्मिक सिद्धिनी ज प्रधानता होय छे;
आ जीवे एनी अनादिथी अवगणना करी छे; स्वसिद्धि अने निधिने भूलीने
अनित्य बाह्य रिद्धिना भ्रममां भरमायो छे. जीवे खरेखर निरंतर स्वसिद्धि
अने निधिनुं सम्यक्श्रद्धान् अने ज्ञान करवुं ए ज मा५ एक ज आत्मनिधि
अने सिद्धिने प्राप्त करवानो सम्यक्मार्ग छे. –जे मार्ग गुरुदेव आपणने देखाडी
रह्या छे.