Atmadharma magazine - Ank 308a
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. अषाड : २४९प आत्मधर्म : ३ :
शरीरादिने व्यवहारथी एटले के अशुद्धनयथी आत्माना कह्या त्यां ते व्यवहारमां
ज मोहित थयेलो अज्ञानी शरीर ते मारुं ने हुं तेनो स्वामी, हुं तेनो कर्ता–एम मानी
बेठो. अने तेनी ज उपलब्धिमां रोकाई गयो. केमके जेने पोतानुं माने तेनी ज
उपलब्धिमां रोकाय. ज्ञानी तो जाणे छे के मारे माटे सदा रहेनार एवो मारो शुद्धआत्मा
ज धु्रव छे, ने तेथी ते ज अनुभवमां लेवा योग्य छे. शुद्ध उपयोगरूपे परिणमेलो एवो
मारो धु्रवआत्मा ज मारे अनुभववा योग्य छे, एना सिवायनुं बीजुं बधुं मारामां
असत् छे. संयोगरूपे ते भले हो, पण हुं तेने मारापणे जरा पण अनुभवतो नथी.
धर्मी जाणे छे के हुं ज्ञानात्मक छुं, दर्शनस्वरूप छुं, अतीन्द्रिय महान पदार्थ छुं,
धु्रव छुं, अचळ छुं अने शुद्ध छुं. –आवा मारा आत्माने ज हुं अनुभवुं छुं.
शुद्ध आत्मा सत् अने अहेतुक छे, तेना स्वभावनी सत्तामां कोई हेतु नथी,
स्वत; सिद्ध अनादिअनंत सत् छे. आवो शुद्धआत्मा ज आत्माने धु्रव छे, बीजुं कांई
आ आत्माने माटे धु्रव नथी. संयोगो तो बधा अधु्रव छे, ने परतःसिद्ध छे. केमके
कर्मोदय वगेरे बाह्य कारणो वडे संयोग आवे छे, ते कांई आत्मा साथे कायम रहेनारा
नथी एटले धु्रव नथी. शुद्ध आत्मा ज धु्रव छे, ने तेथी ते ज उपलब्ध करवा योग्य छे, ते
ज श्रद्धा–ज्ञान–रमणता करवा योग्य छे. अधु्रव एवा अन्य संयोगथी शुं प्रयोजन छे?
जुओ, अहीं संयोगने अधु्रव कहेतां तेमां पाप अने पुण्य बंनेनुं फळ आवी गयुं,
पुण्यनुं फळ पण अधु्रव छे. समवसरणनो संयोग पण आत्माने माटे अधु्रव छे. तेना
आश्रये कल्याण थतुं नथी. पोताना धु्रव आत्माना आश्रये ज कल्याण थाय छे, केमके ते
शुद्ध छे.
आत्माने शुद्धपणाने कारणे धु्रवपणुं कह्युं; हवे तेने शुद्धपणुं केम छे? तो कहे छे के
एकपणुं होवाथी तेने शुद्धपणुं छे. परथी भिन्नपणुं अने स्वथी अभिन्नपणुं–एवा
एकत्वने लीधे आत्माने शुद्धता छे ने शुद्धता होवाथी धु्रवता छे, धु्रवता होवाथी ते ज
आश्रय करवा योग्य छे. तेना ज आश्रये परम सुखनो अनुभव थाय छे.
* धु्रवपणाने लीधे आश्रय करवा योग्य कह्यो.
* शुद्धपणाने कारणे धु्रव कह्यो.