: १४ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
(६)
मद नहीं जो नृप तात मद नहीं भूपति मामको।
मद नहीं विभव लहात मद नहीं सुंदर रूपको।।
(७)
मद नहीं होय प्रधान मद नहीं तनमें जोरक।
मद नहीं जो विद्वान मद नहीं संपत्ति कोषका।।
(८)
हुवो आतमज्ञान तज रागादि विभाव पर ।
ताको हो कयों मान जात्यादिक वसु अथिरका ।।
(९)
वंदत है अरिहंत जिन मुनि जिन–सिद्धांत को ।
नमे न देख महंत कुगुरु कुदेव कुधर्मको ।।
(१०)
कुत्सित आगम देव कुत्सित पुन सुरसेव की ।
प्रशंसा षट भेव करे न सम्यक् वान है ।।
(११)
प्रगटा ऐसा भाव किया अभाव मिथ्यात्वका ।
वंदत ताके पांव बुधजन मन वच कायसो ।।
समकितीने पिता राजा होय
तोपण तेनो कुळमद नथी; मातृपक्ष नृपति
होय तो तेनो पण जातिमद नथी. वैभवनी
प्राप्तिनो मद नथी तेमज सुंदर रूपनो मद
नथी. प्रधानपद वगेरे अधिकारनो मद
नथी, शरीरमां जोर होय तेनो मद नथी,
विद्वत्तानो मद नथी के धनसंपत्तिनो मद
नथी. जेने रागादि पर विभावो छोडीने
तेनाथी भिन्न आत्मानुं ज्ञान थयुं तेने
जाति वगेरे अस्थिर–नाशवान वस्तुनुं
मान केम होय? जेने पोताथी भिन्न जाण्या
तेनुं अभिमान केम करे? (आ रीते
सम्यग्द्रष्टिने आठ मदनो अभाव छे.)
अरिहंत जिनदेव, जिनमुद्राधारी
मुनि अने जिनसिद्धांतने ज ते वंदन करे
छे; परंतु कुदेव–कुगुरु–कुधर्म गमे तेटला
महान देखाता होय तोपण तेने ते नमतो
नथी. (एटले त्रण मू्रढतानो अभाव छे.)
कुत्सितदेव–कुत्सित गुरु ने कुत्सित
आगम, तथा ते त्रणना सेवको–एवा छ
अनायतननी ते सम्यक्वान जीव प्रशंसा
करतो नथी.
आ प्रमाणे शंकादि आठ दोष, आठ
मद, त्रण मूढता ने छ अनायतन एवा
पचीस दोषनो सम्यग्द्रष्टिने अभाव छे.
जेने आवो निर्मळभाव प्रगट्यो छे
अने मिथ्यात्वनो अभाव कर्यो छे–तेने
‘बुधजन’ मन–वचन–कायाथी पायवंदन
करे छे.