: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : १९ :
आश्रये तो राग ज थाय छे. निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र तो अंतर्मुख
परिणति छे, ने व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रमां तो बहिर्मुख
रागपरिणति छे. जे जीव आवुं भेदज्ञान करे छे, ते ज जीव राग साथेनी
कर्ता–कर्मनी अज्ञानप्रवृत्तिथी छूटे छे. भेदज्ञान थतांवेंत ज ते पोताना
चैतन्यस्वभाव साथे एकताथी अने रागादि साथे भिन्नताथी
सम्यग्दर्शनादि निर्मळकार्यरूपे परिणमे छे, ने बंधनथी छूटे छे. आ रीते
भेदज्ञानथी ज बंधननो निरोध थाय छे.
(६९) ज्ञानमात्रथी ज बंधन कई रीते अटके छे?
अशुचिपणुं, विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःखकारणो. एथी निवर्तन जीव करे.
–सम्मेदशिखरजीनी यात्राए गया त्यारे मधुवनमां आ गाथा वंचाणी
हती. आत्मानो चैतन्यस्वभाव पवित्र छे, सुखरूप छे, अने रागादि
आस्रवो चैतन्यरहित छे, अशुचिरूप छे तथा दुःख उपजावनारां छे. आ
रीते आस्रवोनुं चैतन्यस्वभावथी विपरीतपणुं जाणीने भेदज्ञानी जीव
तेनाथी पाछो वळे छे, एटले तेने बंधन थतुं नथी. आ रीते भेदज्ञानथी
बंधन अटकी जाय छे.
(७०) भेदज्ञान एटले शुं?
भेदज्ञान एटले अंतर्मुख थयेलुं ज्ञान; तेनो स्वभाव ज क्रोधादिथी छूटा
पडवानो छे. ज्ञाननो उपयोग स्वभाव तरफ वळीने एकता करे अने
रागादिथी भिन्नता न करे एम बने नहि; एटले आत्मा तरफ वळेला
भेदज्ञानने आस्रवोथी निवृत्तिनी साथे अविनाभावीपणुं छे.
अहिं आचार्यदेव अलौकिक भेदज्ञान वडे आत्मा अने आस्रवोनुं
स्पष्ट जुदापणुं समजावे छे. आत्माने अने आस्रवोने विरुद्ध
स्वभावपणुं छे तेथी तेमने एकता नथी पण भिन्नता छे.
(७१) रागनुं खरुं ज्ञान क््यारे थाय? अथवा रागने कोण जाणे?
रागथी जुदो पडे तो ज रागनुं खरुं ज्ञान थाय छे, रागमां एकता करे
तेने रागनुं पण ज्ञान थतुं नथी. चैतन्य छे ते रागथी अन्य छे; अने
रागमां चैतन्यथी विपरीत स्वभावपणुं छे एटले ते चैतन्यथी अन्य छे,
ते राग पोते