: २० : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
पोताने जाणतो नथी; अने चैतन्यस्वभावी आत्मा तो स्वयं (–रागना
अवलंबन वगर ज) स्व–परने जाणनारो चेतक छे, ते पोते पोताने
जाणतां रागने पण पर तरीके जाणे छे. ते चैतन्यथी राग अन्य छे. आ
रीते आत्माने अने आस्रवोने भिन्नस्वभावपणुं छे–एवा भेदज्ञानथी
आत्माने बंधन अटकी जाय छे.
(७२) सम्यग्द्रष्टिने बंधन छे?
ना; द्रष्टिअपेक्षाए तो समकितीने मुक्त कह्यो छे. समकितीनी द्रष्टिमां
बंधरहित शुद्ध आत्मा ज छे, तेथी द्रष्टिअपेक्षाए तेने बंधन छे ज नहीं.
जेम अंधकारने अने प्रकाशने भिन्नता छे, तेम अंधकार जेवा आस्रवोने
अने प्रकाश जेवा चैतन्यने अत्यंत भिन्नता छे. जेटलो पराश्रित व्यवहार
छे ते बधोय आस्रवोमां जाय छे, ते चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे; ने जे
स्वाश्रित निश्चय छे–स्वाश्रये थयेली निर्मळ पर्याय छे–तेने चैतन्यस्वभाव
साथे एकता छे. आवा भेदज्ञानथी ज्यां चैतन्य साथे एकतारूप ने
रागादिथी भिन्नतारूप परिणमन थयुं त्यां हवे बंधन शेमां रहे? बंधन तो
ज्यां आस्त्रभाव होय त्यां थाय, पण ज्यां आस्रवोथी छूटीने
चैतन्यभावमां वळ्यो त्यां ते चैतन्यभावमां बंधन थतुं नथी.
(७३) भेदज्ञान वगर धर्म थाय?
ना; आ भेदज्ञान करवुं ते मूळ वात छे. भेदज्ञान वगर कई तरफ झूकवुं्र ने
कोनाथी छूटवुं–तेनी खबर पडे नहि. रागने ऊंडे ऊंडे साधन माने तेनुं
वलण आस्रव तरफ ज छे, ते आस्रवोथी छूटो पडतो नथी, आस्रवोथी
भिन्न चैतन्यने ते जाणतो नथी, एटले तेने धर्म थतो नथी. जे जीव
रागथी भिन्नताने जाणतो नथी तेने वीतरागभावरूप धर्म क््यांथी थाय?
अरे जीव! धर्मी थवा माटे तुं आवा भेदज्ञाननी एवी द्रढता कर
के त्रण काळ त्रण लोकमां आस्रवनो अंश पण चैतन्यस्वभावपणे न
भासे; आवुं द्रढ भेदज्ञान थाय एटले परिणति अंतरमां वळ्या वगर
रहे नहि. परिणति जयां अंतरमां वळी त्यां पवित्रता प्रगटी, स्वपर–
प्रकाशकपणुं प्रगट्युं अने अतीन्द्रिय सुख प्रगट्युं, एटले दुःखनुं कारण
न रह्युं; आ भेदज्ञाननुं कार्य छे, आ धर्म छे.
(७४) भाई, तारे भगवान थवुं छे?
हा,! तो भगवान थवानुं कारण शुं राग होय? राग तो भगवानथी विरुद्ध