: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : २५ :
जेने आगमनी उपासना नथी, आगममां आत्मानुं स्वरूप केवुं कह्युं छे तेनी
खबर नथी, तेने स्वानुभव थतो नथी एटले के मोक्षमार्ग थतो नथी. हुं तो
उपयोगस्वरूप आत्मा अमूर्तिक छुं, अने शरीरादि तो अचेतन छे–रूपी छे–ते हुं नथी,
तेमज मोह–राग–द्वेषादि भावो ते पण मारा उपयोगस्वरूपथी बहार छे एटले जुदा छे;
–आवुं स्व–परनुं भेदज्ञान करे त्यारे ज साचो आत्मा अनुभवमां आवे. भाई! तारे
मोक्षमार्गमां आववुं होय तो सर्वज्ञकथित आगमअनुसार तुं स्व–परने जाण,
परमात्मस्वरूपने जाण. अरे, दुनिया तो वीतरागमार्गने छोडीने रागना मार्गे चडी गई
छे, रागथी ते धर्म मनावे छे, पण बापु! मोक्षनो मार्ग एवो नथी. रागादिभावो ते तो
उपयोगना घातक छे, एने जे मोक्षनुं कारण माने ते जीव ते रागादिने क््यांथी हणी
शकशे? राग भले शुभ हो–ते कांई आत्मानी शांति आपनारो नथी, ते तो शांतिने
घातनारो छे. आत्मा तो राग वगरनो, जिन भगवान जेवो छे, एने ओळखवो ते ज
जिनप्रवचननो सार छे. –
‘जिन सोही है आतमा, अन्य होई सो कर्म,
यही वचनसे समजले जिनप्रवचनका मर्म.’
श्रीमद्राजचंद्रजी पण कहे छे के–
‘जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कांई,
लक्ष थवाने तेहनो कह्यां शास्त्र सुखदाई.’
जुओ, शास्त्रोए शुं कह्युं? शास्त्रोए जिनपद जेवुं निजपद बताव्युं; जेवा
भगवान सर्वज्ञदेव छे तेवो ज आ आत्मानो स्वभाव छे. आवा स्वभावने ओळख्या
वगर मोह टळे नहि ने मोक्ष मळे नहीं.
आवुं आत्मस्वरूप बतावनारा आगम ते मुमुक्षुनां चक्षु छे, एटले के एवा
आगमनुं भावश्रुतज्ञान ते मोक्षमार्गने जोवानी आंख छे. सिद्ध भगवंतो तो
शुद्धज्ञानमय छे, तेमने तो असंख्यप्रदेशे सर्वत्र केवळज्ञानचक्षु ऊघडी गयां छे एटले
तेओ सर्वतःचक्षु छे. जगतना सामान्य जीवो तो ईंद्रियचक्षुवाळा छे, ईंद्रियज्ञानथी ज
जोनारा छे; ते ईंद्रियज्ञानवडे कांई आत्मा न जणाय. देव वगेरेने जो के अवधिज्ञानरूपी
चक्षु छे, पण तेना वडे मात्र रूपी पदार्थोने ज तेओ देखे छे, अतीन्द्रिय आत्मा तेना वडे
संवेदन थतुं नथी.