परमात्मस्वरूपमां एकाग्र रहे छे. –आवा भावश्रुतचक्षुवडे तेओ सर्वतःचक्षुरूप
केवळज्ञानने साधे छे. अहीं मुनिओनी प्रधानताथी उपदेश छे, बाकी तो चोथा
गुणस्थानथी सम्यग्द्रष्टिने पण स्व–परना विवेकरूप भावश्रुतज्ञानचक्षु उघडी गयां छे,
ने तेना वडे ते पण मोक्षने साधी रह्या छे. मोक्षे जनारा जीवोने आगमचक्षु एटले के
भावश्रुत ज्ञान वडे शुद्धात्मानुं संवेदन होय छे.
ज्ञाननिष्ठपणुं तेमने नथी. शुद्धात्माना संवेदनवडे ज ज्ञाननिष्ठपणुं थाय छे, अने
तेनाथी ज केवळज्ञान सधाय छे. ज्ञानमां एकाग्रतावडे केवळज्ञान सधाय छे, पण ज्ञेयमां
एकाग्रतावडे केवळज्ञान साधी शकाय नहीं. एटले सर्वज्ञपदनी सिद्धिने माटे पहेलां ज्ञान
अने ज्ञेयनुं (अर्थात् स्व अने परनुं) स्वरूप बराबर जाणवुं जोईए. ज्ञान ज्ञेयोने
जाणे भले, पण तेथी ज्ञान कांई ज्ञेयरूप थई जतुं नथी. जडज्ञेयोने जाणे तेथी कांई ज्ञान
पोते जड थई जाय नहि. ज्ञान तो जडथी ने रागथी जुदुं, ज्ञानरूप रहीने ज तेमने जाणे
छे. जाणवुं ए तो ज्ञाननी ताकात छे, ज्ञाननो स्वभाव छे. आवा शुद्धज्ञानस्वरूप हुं छुं–
एम पोताना आत्माने स्वसंवेदनवडे अनुभवमां लईने तेमां एकाग्र थतां केवळज्ञान
प्रगटे छे; असंख्य चैतन्यप्रदेशे अनंता ज्ञानदीवडा प्रगटी जाय छे.
तेने तो आगमचक्षु ऊघडयां ज नथी एटले मोक्षमार्गने ते देखी शकतो नथी. अहो,
वितराग सर्वज्ञ परमात्माए जेवुं वस्तुस्वरूप कह्युं तेवा वस्तुस्वरूपनो निर्णय साचा
आगमज्ञान वडे थाय छे. आ आगमज्ञान एटले भावश्रुतज्ञान; तेमां समस्त पदार्थोनो
निर्णय करवानी ताकात छे. परथी भिन्न, उपयोगस्वरूप आत्मानी अनुभूति थई
त्यारे आगमचक्षु ऊघडयां, ने त्यारे जीवे मोक्षमार्गने देख्यो. आवा आगमज्ञानपूर्वक
साचुं तत्त्वार्थश्रद्धान् थाय छे, अने आवा ज्ञान–श्रद्धानपूर्वक निजस्वरूपमां स्थिरतारूप
आचरण होय छे, –आवा श्रद्धा–ज्ञान–आचरण ते मोक्षमार्ग छे.