: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : २९ :
कर्म अने शरीर अजीव छे, पुण्य–पाप ते आस्रव छे; तेने पोताना मानवा के
तेवा स्वरूपे जीव मानवो–ए तो भगवानना उपदेशथी विपरीत मान्यता छे एटले के
मिथ्याश्रद्धा छे. अनंता सर्वज्ञ केवळीभगवंतो थया, सीमंधरनाथ वगेरे तीर्थंकर
भगवंतो विदेहक्षेत्रमां (मनुष्य लोकमां) सर्वज्ञपणे अत्यारे बिराजी रह्या छे, त्यां
लाखो केवळीभगवंतो पण बिराजे छे; ते बधा भगवंतोए उपयोगरूप आत्मा जोयो
छे, –जडरूप के रागरूप नथी जोयो. उपयोगरूप आत्मा भगवाने जोयो छे ने तेवो ज
उपदेश्यो छे. आवा आत्माने देहथी भिन्न जाणीने विपरीत मान्यता छोडो.
प्रयोजनभूत छे एटले के तेमनुं ज्ञान करवुं ते प्रयोजनभूत छे. कांई अजीव के
आस्रवबंध प्रयोजनभूत नथी पण तेने छोडवा माटे तेनी ओळखाण करवी ते
प्रयोजनभूत छे. ओळख्या वगर तेने छोडशे केवी रीते? घरमां कोई दुश्मन प्रवेशी गयो
होय, तेने ओळखे नहि ने मित्र तरीके माने –तो ते तेने क््यांथी छोडशे? तेम रागादि
आस्रवो के जे शत्रु जेवा छे, तेने जे मित्र माने (–तेनाथी धर्म माने) ते तेने क््यांथी
छोडशे? माटे बधा तत्त्वोने जेम छे तेम बराबर जाणो तो ज तेनी साची श्रद्धा थाय, ने
भूल मटे. भूल मटे एटले दुःख मटे. माटे दुःखथी छूटीने सुखी थवुं होय तेणे आ
जीवादि साततत्त्वोनुं स्वरूप ओळखवुं. शुद्धद्रष्टिथी तेमां शुद्धजीव ज उपादेय छे. अजीव
तो भिन्न छे; आस्रव ने बंध ते दुःखनां कारणो छे; संवर–निर्जरा ते सुखनां कारणो छे;
ने मोक्ष पूर्ण सुखरूप छे.
जीव केवो छे? चेतन छे. चेतननुं एटले के जीवनुं रूप तो उपयोग छे. जीव
चेतनरूप सुखथी भरेलो छे; अजीवमां ज्ञान के सुख–दुःख नथी. जीव ज ज्ञानवडे स्व–
परने जाणे छे ने पोताना सुखने वेदे छे. जगतमां जेने बीजा कोईनी उपमा लागु पडती
नथी एनुं अनुपम जीवतत्त्व उपयोगरूप छे. आवा निजतत्त्वने ओळख्या वगर जीव
दुःख पाम्यो; तेने ओळखे त्यारे मिथ्यात्व मटे ने दुःख छूटे. ‘हुं उपयोगस्वरूप जीव छुं’
एवा अनुभव वगर देहबुद्धि मटे नहीं, ने सुख थाय नहीं.
शास्त्रकारोए उपयोगलक्षणथी आत्मानुं स्वरूप ओळखाव्युं छे. अहीं
छहढाळामां कह्युं के–
‘चेतनको है उपयोग रूप, विनमूरति चिन्मूरति अनूप.’
समयसारमां कुंदकुंदस्वामीए कह्युं छे के–