: ३० : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
‘हुं एक शुद्ध सदा अरूपी, ज्ञान–दर्शनमय खरे.’
सर्वज्ञज्ञान विषे सदा उपयोगलक्षण जीव छे.’
समयसार–नाटकमां पं. बनारसीदास कहे छे के–
‘चेतनरूप अनूप अमूरत सिद्धसमान सदा पद मेरो.’
आत्मसिद्धिमां श्रीमद्राजचंद्रजी कहे छे के–
‘शुद्ध–बुद्ध चैतन्यघन स्वयंज्योति सुखधाम. ’
–आम सर्वज्ञभगवाने जोयेलुं जीवनुं यथार्थस्वरूप सन्तोए जाते अनुभवीने
शास्त्रोमां बतावुं छे; ते प्रमाणे बराबर ओळखवुं जोईए,
नवतत्त्वोमां चेतनरूप जीव;
चेतना वगरनां पुद्गल वगेरे पांच द्रव्यो अजीव;
मिथ्यात्व अने राग–द्वेषना भावो–जेना वडे कर्मो आवे ने बंधाय ते आस्रव
तथा बंध;
सम्यग्दर्शनपूर्वक शुद्ध आत्मानुं भान अने तेमां लीनता वडे शुद्धता थतां नवां
कर्मो अटके ने जुनां खरे ते संवर–निर्जरा;
अने संपूर्ण सुखरूप, तथा कर्मना सर्वथा अभावरूप मोक्ष छे.
–आवा तत्त्वोने ओळखे त्यारे मिथ्यात्व टळे छे. तेथी पोताना हित माटे सात
तत्त्वोनुं ज्ञान उपयोगी छे, जरूरनुं छे. तत्त्वने जाणे नहि ने धर्म करवा मांगे तो थाय
नहि. माटे ते तत्त्वोने जाणीने ते संबंधमां विपरीतता टाळवी जोईए.
सर्वज्ञदेवे जीव सदा उपयोग लक्षणरूप जोयो छे. आत्मानुं स्वरूप तो उपयोग
छे. आवो उपयोगस्वरूप शुद्धआत्मा पोताना ज्ञानमां भास्या वगर जीव क््यांक ने
क््यांक तत्त्वनी भूल कर्यां वगर रहे नहि. ने भूल होय त्यां दुःख होय. मिथ्याश्रद्धाज्ञान–
चारित्र ते दुःखरूप छे ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते सुखरूप छे.
जीव पोते केवो छे ते जाण्या वगर पोतामां ठरशे केवी रीते?
अजीवने अजीव जाण्या वगर तेनाथी जुदो केवी रीते पडशे?