Atmadharma magazine - Ank 309
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : द्वि. अषाड : २४९५
प्रश्न: अजीवमां तो शक्ति न होय, एटले आत्मा तेने हलावे–चलावे त्यारे
ते हाले–चाले?
उत्तर: एम नथी; अजीवमां पण तेनी अनंत शक्तिओ छे ने तेनी क्रियाओ
ते स्वयं पोतानी शक्तिथी करे छे. एकेक जड रजकणमां तेना अनंता जड–गुणो छे,
ने तेनी शक्तिथी तेनामां रूपांतर हलनचलन वगेरे थाय छे. माटे जीव अने
अजीवनी भिन्नता जाणवी. ते बंनेने भिन्न ओळखतां तत्त्वनी भूल टळे छे ने
यथार्थ श्रद्धा थाय छे.
जगतमां भिन्नभिन्न अनंता जीवो छे; जीव करतां अनंतगुणा पुद्गलो
छे; असंख्य काळाणु द्रव्यो छे; धर्मास्ति, अधर्मास्ति अने आकाश ए प्रत्येक द्रव्यो
छे. आ छ प्रकारनां द्रव्योमां जीव सिवायनां पांचे अजीव छे; ने पुद्गल सिवायना
पांचे अमूर्त छे. जगतमां आ छ ए प्रकारनां द्रव्यो सर्वज्ञदेवे स्वतं
त्र जोया छे;
तेने स्वतंत्र न मानतां पराधीन मानवा ते तत्त्वश्रद्धामां विपरीतता छे. छ
द्रव्योरूप जे विश्व, तेनो कोई कर्ता–हर्ता के धर्ता नथी. (धर्ता=धारण करनार)
छए द्रव्योमां एकलो आत्मा ज उपयोगरूप छे, तेथी आत्मा ज अनुपम
छे. अहा! जे सर्वज्ञस्वभावी महान पदार्थ छे तेने कोनी उपमा देवी? अनादिथी
आत्मामां सर्वज्ञस्वभाव छे–जे बीजा शेमांय नथी; शरीरमां नथी, रागमां नथी,
एवो उपयोग ते जीवनुं लक्षण छे. अलौकिक वस्तु आत्मा छे, तेना स्वभावने
बीजा कोई बाह्य पदार्थनी उपमा आपी शकाती नथी; पोताना अनुभव वडे तेने
जाणी शकाय छे. आवा आत्माने स्वानुभवथी जाणे त्यारे ज सम्यग्दर्शन थाय.
सम्यग्दर्शन वगर सम्यग्ज्ञान के सम्यक्चारि
त्र होतां नथी. सम्यग्दर्शन वगरनी
शुभक्रियाओ ते एकडा वगरनां मींडांनी माफक धर्ममां किंमत वगरनी छे. जेम
आंख वगरनो माणस शोभे नहि, तेम जीवनी आंख तो उपयोगरूप ज्ञान–दर्शन
छे, पुण्य–पाप ते कांई जीवनी आंख नथी; आ बहारनी आंख तो जड छे.
उपयोगस्वरूप निज आत्माने जाणवा–देखवारूप सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञानचक्षु
जेने खुल्यां नथी तेनी शुभक्रियाओ पण धर्ममां शोभती नथी, अर्थात् ते धर्मनुं
कारण थती नथी पण संसारनुं ज कारण थाय छे. पोते पोताने न देखे–न जाणे
एने धर्म केवो? सम्यक्त्वरूपी धर्मनी आंख ज तेने ऊघडी नथी.