Atmadharma magazine - Ank 309
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. अषाड : २४९५ आत्मधर्म : ३३ :
शुद्धात्मद्रष्टिपूर्वक सात तत्त्वोने जाणवा जोईए; अजीवने जाणतां एम जाणवुं के
तेमां हुं नथी, माराथी ते भिन्न छे; ए ज रीते रागने जाणतां तेनाथी चैतन्यनी
भिन्नता जाणवी. –आम जाणे त्यारे तत्त्वोने जाण्या कहेवाय. पण शरीरने के रागने
आत्मानुं स्वरूप माने तो तेणे तत्त्वोने जाण्या नथी. जीव अने अजीव ए बे मूळ तत्त्वो
छे, ने बाकीनां तत्त्वो ते तेनी अशुद्ध के शुद्ध पर्यायो छे. आ सात तत्त्वोने ओळखे तो
तेमां अजीवथी पोतानी भिन्नता जाणीने, पोताने उपयोगस्वरूप जाणे, एटले अजीव
साथे एकताबुद्धि छोडीने शुद्ध जीवस्वभावनो आश्रय करतां मिथ्यात्वादि आस्रव–बंध
टळे छे ने सम्यक्त्वादिरूप संवर–निर्जरा–मोक्षदशा प्रगटे छे. माटे सात तत्त्वोने जाणवा
खास जरूरना छे. अरे, अत्यारे तो लोकोमां सात तत्त्वोनुं ज्ञान भूलाई गयुं छे.
अनादिथी जीवे सात तत्त्वोने सरखा जाण्या नथी. आ तो वीतरागवाणीमां मुळ मूदनी
वात छे. सात तत्त्वोमां हुं उपयोगस्वरूप जीव छुं–एम ओळखवुं, –जेथी मिथ्यात्व टळे
ने सम्यक्त्व थाय.
हुं कोण छुं ने मारुं खरुं स्वरूप शुं छे तेनो जीवे साचो विचार पण कदी कर्यो
नथी. चार गतिनां घोर दुःखोथी जेने छूटवुं होय तेणे अंदर विचार करीने
उपयोगस्वरूप आत्मा हुं छुं एम ओळखवुं जोईए. शास्त्रकारोए करुणा करीने ते
स्वरूप समजाव्युं छे.
‘वीतराग–विज्ञान’ (भाग बीजो)मांथी एक प्रकरण.
(पुस्तक छपाय छे अने आत्मधर्मना ग्राहकोने भेट मळशे.)
* * *
* एक भूल: आत्मधर्मना गतांकमां १६ मा पाने एम छपायुं छे के ‘जयां हिमालयनी
टोच छे त्यां पहेला स्वर्गनुं तळियुं छे’ –ते भूल छे; तेने बदले आ
प्रमाणे वांचवुं के ‘जयां मेरु पर्वतनी टोच छे त्यां पहेला स्वर्गनुं तळीयुं
छे, बंने वच्चे मा
त्र एक वाळ जेटलुं अंतर छे. ’ (एटले के हिमालयने
बदले मेरु समजवुं. आ शरतचूक प्रत्ये ध्यान खेंचनारा पाठकोनो
आभार! )
* * *