बंने एक नथी पण भिन्न छे. उपयोग तो आत्मा छे, पण क्रोधादि ते खरेखर आत्मा
नथी. आ रीते क्रोधादिथी भिन्न उपयोगस्वरूप आत्मानो अनुभव करवो, श्रद्धा करवी,
ते भेदज्ञान अने सम्यग्दर्शन छे; ते धर्म छे.
न रहे पण उपयोग वगरनो अजीव थई जाय. आत्मा तो सदा उपयोगस्वरूप छे; तेने
शरीरादि जडथी तो भिन्नता छे, ने क्रोधादि आस्रवोथी पण भिन्नता छे. क्रोधादि भावो
जो के जीवनी विकारी अवस्था छे, पण ते ज्ञानमयभाव नथी; ज्ञानने अने ते क्रोधादिने
एकता नथी, बंनेनुं स्वरूप तद्रन जुदुं छे.
एकता छे, केमके उपयोग तेनुं स्वरूप ज छे; पण उपयोगनी माफक अन्य जड पदार्थो साथे
पण जो आत्माने एकता होय तो आत्मा पोते जड थई जाय, जीवनुं जीवपणुं न रहे
एटले के ते अजीव थई जाय; पछी ‘आ जीव ने आ अजीव’ एवो कोई भेद जगतना
पदार्थोमां रहे नहिं; अने जीव–अजीवनी भिन्नताना भान वगर धर्म पण थाय नहीं.
उपयोग नथी तेम जडकर्मो के शरीरादि ते पण उपयोग नथी; ते उपयोगथी शून्य एवा
अचेतन छे, अहा, परभावोथी भिन्न आवो पोतानो आत्मा–तेने अंतरमां
उपयोगस्वरूपे अनुभवमां ल्यो. ‘आत्मउपयोग’ वडे अनुभवमां आवे छे; रागवडे ते
अनुभवमां न आवे.