: श्रावण : २४९प आत्मधर्म : ९ :
स्वभावना निर्णयना काळे ‘ज्ञाननुं’ अवलंबन छे, विकल्प होवा छतां तेनुं अवलंबन
नथी. विकल्प वडे साचो निर्णय नथी थतो, ज्ञानवडे ज निर्णय थाय छे. ज्ञान पोते
ज्ञानरूप थाय ने विकल्परूप न थाय एटले के आत्मसन्मुख थाय ते सम्यग्दर्शन ने
सम्यग्ज्ञाननी रीत छे. ज्ञान पोते ज्ञानरूप थईने आत्मानो अनुभव करे छे.
प्रवचनमां अत्यंत महिमापूर्वक पू. श्री कानजीस्वामी कहे छे के– अहा!
अनुभवदशानुं अचिंत्यस्वरूप आचार्यदेवे समजाव्युं छे. आवा अनुभवमां
आनंदपरिणति खीले छे. स्वानुभवमां ज्ञान पण अतीन्द्रिय छे ने आनंद पण
अतीन्द्रिय छे.
हे जीवो! आत्मसन्मुख थईने तमे आवो अनुभव करो.
(आ गाथाना बीजा प्रवचन माटे जुओ पानुं–१३)
• हुं ज्ञानस्वभाव छुं–एवो जे खरो निर्णय छे तेनी संधि
ज्ञानस्वभाव साथे छे, विकल्प साथे तेनी संधि नथी.
• ज्ञान अने विकल्प बंने निर्णयकाळमां होवा छतां, तेमांथी
ज्ञानस्वभाव साथे संधिनुं काम ज्ञाने कर्युं छे, विकल्पे नहि.
• ज्ञानस्वभाव साथे संधि करीने, तेना लक्षेे उपडेली ज्ञानधारा
ज्ञानना अनुभव सुधी पहोंची जशे.
• ज्ञानस्वभाव साथे संधि करवानी विकल्पमां ताकात नथी. ज्ञाने
स्वभावनो ‘टच’ कर्यो त्यारे साचो निर्णय थयो.
• ज्ञानस्वभावना निर्णयमां, विकल्पथी ज्ञान अधिक थयेलुं छे,
ज्ञान अने विकल्प वच्चे विजळी पडी चुकी छे, बंने वच्चे तिराड
पडी गई छे, ते सांध हवे भेगी न थाय.
आवा आत्मनिर्णयना बळे सम्यक्त्व पमाय छे.