: श्रावण : २४९प आत्मधर्म : ११ :
२१४. नरकमां दुःखनुं कारण शुं छे?
त्यां पण जीवना मिथ्यात्वादि भावो ज
दुःखनुं कारण छे.
२१प. स्वर्गमां दुःखनुं कारण शुं छे?
त्यां पण जीवना मिथ्यात्वादि भावो ज
दुःखनुं कारण छे.
२१६. निगोदमां जीव केम रहे छे?
एना भावकलंकनी अत्यंत प्रचुरताने
लीधे.
२१७. जडकर्मो जीवने दुःख आपे छे?
ना; ए तो दुःखमां मात्र निमित्त छे;
खरूं दुःख जीवना पोताना ऊंधा
भावनुं छे. कर्म तो जड छे, जीवथी
भिन्न छे. भिन्न वस्तु सुख–दुःख आपे
नहीं.
२१८. कर्म कई रीते बंधायुं?
जीवना ऊंधा भावअनुसार.
२१९. कर्म अने संसारभ्रमण केम छूटे?
जीव पोतानो ऊंधो भाव छोडीने
सम्यक्त्वादि करे तो कर्म छूटे ने
संसारभ्रमण मटे.
२२०. आचार्यभगवान अने संतो शेनो
उपदेश दे छे?
तेओ वारंवार कहे छे के रे जीव!
मिथ्यात्वने वश तें घणां घणां दुःखो
भोगव्या, माटे हवे तो ते
मिथ्यात्वादिने छोड....छोड!
२२१. संसारमां रखडतां जीवे कोईवार
दया पाळी हशे?
हा, दयाना शुभभाव तेणे अनंतवार
कर्या.
२२२. दया करवाथी शुं थयुं?
पुण्यने लीधे ते स्वर्गमां गयो, परंतु
त्यां पण अज्ञानथी ते दुःखी ज थयो.
२२३. संसारमां रखडता जीवे शुं न कर्युं?
शुभ–अशुभ बंनेथी पार पोतानुं
स्वरूप न जाण्युं.
२२४. मिथ्यात्व एटले शुं?
आत्माने भूलीने, देहमां ने रागमां
एकत्वबुद्धि ते मिथ्यात्व छे.
२२प. आवा मिथ्यात्वनुं स्वरूप समजीने
शुं करवुं?
तेने छोडवुं ने सम्यक्त्व करवुं.
२२६. संयोग दुःखनुं कारण छे के
संयोगीबुद्धि?
संयोगीबुद्धि दुःखनुं कारण छे, संयोग
नहि.
२२७. जीवे चार गतिमां सौथी ओछा
भव शेमां कर्या?
मनुष्यगतिमां.
२२८. मनुष्यगतिमां केटला भव कर्या?
अनंत.
२२९. आ जीव कदी देवपद पाम्यो हशे?
हा, अनंतवार स्वर्गनो देव थयो.
२३०. आ जीव पूर्वे कदी शुं नथी पाम्यो?
सिद्धपद.
२३१ संसारनो झाझो काळ जीवे शेमां
गाळ्यो?
एकेन्द्रिपणाना महा दुःखोमां.
२३२. एकेन्द्रिपणामां महा दुःख केम हतुं?