: श्रावण : २४९प आत्मधर्म : १३ :
आ रीते सम्यग्दर्शन थाय छे.
सम्यग्दर्शन माटे उद्यम करनार मुमुक्षु जीव प्रथम तो
ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करीने..... पछी तेनी प्रगट
प्रसिद्धि एटले के साक्षात् अनुभव कई रीते करे छे, ते
समजावीने आचार्यदेवे सम्यग्दर्शन कराव्युं छे.
(समयसार गा. १४४ना प्रवचनमांथी)
जे जीव जिज्ञासु थईने स्वभाव समजवा आव्यो छे ते सुख लेवा आव्यो छे
अने दुःख टाळवा आव्यो छे. सुख पोतानो स्वभाव छे, अने जे दुःख छे ते क्षणिक
विकृति छे तेथी ते टळी शके छे. वर्तमान दुःखअवस्था टाळीने सुखरूप अवस्था पोते
प्रगट करी शके छे; आटलुं तो, जे सत् समजवा आव्यो तेणे स्वीकारी ज लीधुं छे.
आत्माए पोताना भावमां ज्ञाननो पुरुषार्थ करीने विकाररहित ज्ञानस्वरूपनो निर्णय
करवो जोईए. वर्तमान विकार होवा छतां विकाररहित स्वभावनी श्रद्धा करी शकाय छे,
एटले के आ विकार अने दुःखथी रहित मारुं स्वरूप सुखमय छे एम नक्की करीने
सुखनो अनुभव थई शके छे.
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जिज्ञासु जीवोने स्वरूप प्रगट करवा माटे पहेली ज सत्समागमरूप ज्ञानक्रिया
शास्त्रोए बतावी छे, एटले श्रुतज्ञानथी आत्मानो निर्णय करवानुं कह्युं छे. कुदेव–कुगुरु
अने कुशास्त्र तरफनो आदर अने ते तरफनुं वलण तो जिज्ञासुने छूटी ज जाय, तथा
विषयादि परवस्तुमां सुखबुद्धि टळी जाय; बधा तरफथी रुचि टळीने पोतानी तरफ रुचि
वळे अने देव–गुरु–शास्त्रने यथार्थपणे ओळखी तेमनो आदर करे, अने तेमणे बतावेल
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करे, –आ बधुं ‘स्वभावना लक्षे’ थयेल होय तो ते जीवने
पात्रता थई कहेवाय. आटली पात्रता ते हजी साक्षात् सम्यग्दर्शन नथी, सम्यग्दर्शन तो
चैतन्यस्वभावमां उपयोग वाळीने निर्विकल्प प्रतीत करवी ते छे. आवुं सम्यग्दर्शन
प्रगट करवा पात्र जीवे शुं करवुं तो आ समयसारजीमां स्पष्ट बताव्युं छे.