: १४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९प
• सम्यग्दर्शन माटे समयसारमां बतावेली क्रिया एटले ज्ञानक्रिया•
प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निश्चय करीने, पछी
आत्मानी प्रगट प्रसिद्धिने माटे, पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो जे ईन्द्रियोद्वारा अने
मनद्वारा प्रवर्तती बुद्धिओ–तेमने मर्यादामां लावीने मतिज्ञानतत्त्वने आत्मसन्मुख
करवुं, तथा अनेक प्रकारना पक्षोना आलंबनथी थता विकल्पो वडे आकुळता उत्पन्न
करनारी श्रुतज्ञाननी बुद्धिओने पण मर्यादामां लावीने श्रुतज्ञानतत्त्वने पण
आत्मसन्मुख करवुं; आ रीते जीव ज्यारे ज्ञानने विकल्पथी भिन्न करीने आत्मसन्मुख
करे छे ते ज वखते ते अत्यंत विकल्परहित थईने, तत्काळ....परमात्मारूप समयसारने
अनुभवे छे, अने ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे. (अर्थात् श्रद्धाय छे) तथा
जणाय छे. –तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. (समयसार गाथा–
१४४ टीका) तेनुं आ स्पष्टीकरण थाय छे.
• श्रुतज्ञान कोने कहेवुं? श्रुतनुं लक्षण अनेकान्त •
“प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करवो” –
एक वस्तु पोतापणे छे अने ते वस्तु अनंत पर द्रव्योथी छूटी छे, आम परथी
भिन्नता बतावीने स्व तरफ वळवानुं बतावे छे–ते श्रुतज्ञाननुं लक्षण छे. वस्तु स्वपणे
छे अने परपणे नथी–एम कहीने श्रुतज्ञाने वस्तुनी परिपूर्णता सिद्ध करी छे, ने स्वाश्रय
करवानुं बताव्युं छे. श्रुतज्ञाने बतावेलुं आवुं स्वरूप समजीने ज्ञानस्वभावनो निश्चय
करवो जोईए.
ज्ञानस्वभावी मारो आत्मा अनंत परवस्तुथी जुदो छे एम सिद्ध थतां पोताना
द्रव्य–पर्यायमां जोवानुं आव्युं. मारुं त्रिकाळी द्रव्य ते एक समयना विकार जेटलुं नथी,
एटले के विकार क्षणिक पर्यायपणे छे परंतु त्रिकाळी स्वरूपपणे विकार नथी–आम
विकाररहित ज्ञानस्वभावनी सिद्धि पण अनेकांतवडे ज थाय छे. भगवानना कहेलां
सत्शास्त्रोनी महत्ता अनेकांतथी ज छे, ते ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करावे छे.
पोतापणे छे अने परपणे नथी तेथी ते कोई बीजानुं कांई करी