Atmadharma magazine - Ank 310
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९प आत्मधर्म : १७ :
न होय तेने श्रुतज्ञाननुं अवलंबन प्रगटशे नहि; अने श्रुतज्ञानना अवलंबन वगर
आत्मानो निर्णय थाय नहि. एटले जे विषयोमां सुख माने के कुदेवादिने माने तेने
आत्मनिर्णय होय ज नहि.
यथार्थ धर्म केम थाय ते माटे जिज्ञासु जीव प्रथम पूर्ण ज्ञानी एवा भगवान,
साधक संत गुरु, अने तेमनां कहेलां शास्त्रोना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो
निर्णय करवानो उद्यमी थाय. ने पछी ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने अंतर्मुख थई
साक्षात् अनुभव करे; –आ धर्मनी कळा छे. धर्मनी कळा ज जगत समज्युं नथी. जो
धर्मनी एक कळा पण शीखे तो तेनो मोक्ष थया वगर रहे नहि.
जिज्ञासु जीव पहेलां सुदेवादिनो अने कुदेवादिनो निर्णय करीने कुदेवादिने छोडे
छे, अने सत्देव गुरुनी एवी लगनी छे के सत्पुरुषो केवो आत्मा कहे छे ते समजवानुं
ज लक्ष छे, एटले तीव्र अशुभथी तो हठी ज गयो छे. जो सांसारिक रुचिथी पाछो नहि
हठे तो वीतरागी श्रुतना अवलंबनमां टकी शकशे नहि.
• धर्म क्यां छे अने केम थाय? •
घणा जिज्ञासुओने प्रश्न ऊठे छे के धर्म माटे प्रथम शुं करवुं? तेना जवाबमां
ज्ञानी कहे छे के तारा ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर. बहारमां क्यांय आत्मानो धर्म नथी.
धर्म तो पोतानो स्वभाव छे. धर्म पराधीन नथी. कोईना अवलंबने धर्म थतो नथी,
धर्म कोईनो आप्यो अपातो नथी, पण पोतानी ओळखाणथी ज धर्म थाय छे. जेने
पोतानो पूर्णानंद जोईए छे तेणे पूर्ण आनंदनुं स्वरूप शुं छे, ते नक्की करवुं जोईए. जे
आनंद हुं ईच्छुं छुं ते पूर्ण अबाधित ईच्छुं छुं, एटले कोई आत्माओ तेवी पूर्णानंददशा
पाम्या छे अने तेओने पूर्णानंददशामां ज्ञान पण पूर्ण ज छे; आ रीते जेमने पूर्णानंद
प्रगटयो छे एवा सर्वज्ञ भगवान छे तेमनो, अने तेओ शुं कहे छे तेनो जिज्ञासुए
निर्णय करवो जोईए. तेथी ज कह्युं छे के प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनवडे ज्ञानस्वभावी
आत्मानो निर्णय करवो. आमां उपादान–निमित्तनी संधि रहेली छे. ज्ञानी कोण छे, सत्
वात कोण कहे छे,–ए बधुं नक्की करवा माटे निवृत्ति लेवी जोईए. जीवने जो स्त्री–
कुटुंब–लक्ष्मीनो प्रेम अने संसारनी रुचिमां ओछप नहि थाय तो ते सत्समागम माटे
निवृत्ति लई शकशे नहि. श्रुतनुं अवलंबन लेवानुं कह्युं त्यां ज अशुभभावनो तो त्याग
आवी गयो. अने साचा निमित्तोनी ओळखाण करवानुं पण आवी गयुं.