Atmadharma magazine - Ank 310
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : श्रावण : २४९प
उत्तर:– सत्नी प्रीति थाय एटले तरत ज खावापीवानो बधो राग छूटी ज जाय
एवो नियम नथी, परंतु ते तरफनी रुचि तो अवश्य घटे ज. परमांथी सुखबुद्धि ऊडी
जाय अने बधामां एक आत्मा ज आगळ होय; एटले निरंतर आत्मानी ज धगश
अने झंखना होय. मात्र ‘श्रुतज्ञान सांभळ्‌या ज करवुं’ एम कह्युं नथी. परंतु श्रुतज्ञान
द्वारा आत्मानो निर्णय करवो; श्रुतना अवलंबननी घून चडतां, देव, गुरु, शास्त्र, धर्म,
निश्चय, व्यवहार, द्रव्य, पर्याय वगेरे बधां पडखां जाणीने एक ज्ञानस्वभावी आत्मानो
निश्चय करवो जोईए. आमां भगवान केवा, तेनां शास्त्रो केवां, अने तेओ शुं कहे छे,
ए बधानुं अवलंबन एम निर्णय करावे छे के तुं ज्ञान छो; आत्मा ज्ञानस्वरूपी ज छे,
ज्ञान सिवाय बीजुं कांई तुं करी शकतो नथी.
देव–गुरु–शास्त्र केवां होय अने ते देव–गुरु–शास्त्रने ओळखीने तेमनुं
अवलंबन लेनार पोते शुं समज्यो होय ते आमां बताव्युं छे. हे जीव! तुं ज्ञानस्वभावी
आत्मा छो, तारो स्वभाव जाणवानो ज छे, कांई परनुं करवुं के पुण्य–पापना भाव
करवा ते तारुं स्वरूप नथी, –आम जे बतावता होय ते साचा देव–गुरु–शास्त्र छे, अने
आ प्रमाणे जे समजे ते ज देव–गुरु–शास्त्रना कहेला श्रुतज्ञानने समज्यो छे. पण जे
रागथी धर्म मनावता होय, शरीरनी क्रिया आत्मा करे एम मनावता होय, जड कर्म
आत्माने हेरान करे एम कहेता होय, ते कोई देव–गुरु–शास्त्र साचां नथी, केमके तेओ
साचा वस्तुस्वरूपना जाणकार नथी अने सत्यथी ऊलटुं स्वरूप बतावे छे.
• श्रुतज्ञानना अवलंबननुं फळ–आत्मअनुभव •
‘हुं आत्मा तो ज्ञायक छुं, पुण्य–पापनी वृत्तिओ मारुं ज्ञेय छे, ते मारा ज्ञानथी
जुदी छे’ आम पहेलां विचार द्वारा यथार्थ निर्णय जिज्ञासु जीव करे छे; हजी
ज्ञानस्वभावनो अनुभव थयो नथी त्यार पहेलांनी आ वात छे. जेणे स्वभावना लक्षे
श्रुतनुं अवलंबन लीधुं छे ते अल्पकाळमां आत्मअनुभव करशे ज. प्रथम विचारमां
एम नक्की कर्युं के परथी तो हुं जुदो, पुण्य–पाप पण मारुं स्वरूप नहि, मारा शुद्ध
स्वभाव सिवाय देव–गुरु–शास्त्रनुं पण अवलंबन परमार्थे नहि, हुं तो स्वाधीन
ज्ञानस्वभावी छुं;–आम जेणे निर्णय कर्यो तेने ज्ञानस्वभावी आत्मानो अनुभव थया
वगर रहेशे ज नहि. अहीं शरूआत ज एवी जोरदार उपाडी छे के पाछा पडवानी वात
ज नथी.