Atmadharma magazine - Ank 310
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९प आत्मधर्म : २५ :
ते अज्ञानी जीव जोके संसारथी डरीने मोक्षने ईच्छे तो छे, पण तेनां
कर्मनी तीव्रतामांथी मंदता थई, –पापमांथी पुण्य थयुं–पण चक्र तो कर्मनुं ज
रह्युं. चैतन्यनुं अने रागनुं अत्यंत भेदज्ञान करवुं जोईए. शुभविकल्पनो कणियो पण
मने चैतन्यसाधनमां जराय मददगार नथी, मारुं चैतन्यतत्त्व शुभविकल्पोथी पण पार
छे–आम अत्यंत भिन्नता जाणीने समस्त कर्मकांडने मूळमांथी ऊखेडी नांखे, अने
कर्मथी भिन्न एवा ज्ञानकांडने अनुभवे तो चैतन्यना आश्रये मोक्षनुं साधन थाय.
ज्यांसुधी अभिप्रायमां अंशमात्र शुभरागनुं अवलंबन रहे त्यांसुधी संसारवृक्षनुं
मूळियुं एवुं ने एवुं रहे छे. पाप छोडीने अज्ञानपूर्वक व्रत–तप–दया–दान–शील–पूजा
वगेरे शुभभावो अनंतकाळमां अनंतवार जीव चूक्यो, पण तेनाथी भवभ्रमणनो अंत
न आव्यो; रागना आश्रयनी बुद्धि न छूटी तेथी संसारमां ज रखडयो. रागमात्र (भले
शुभ होय तोपण) बंधनुं ज कारण छे. छतां अज्ञानी तेने बंधनुं कारण न मानतां
मोक्षनुं कारण मानीने सेवे छे; शास्त्रकार कहे छे के अरे भाई! एक क्षणिक पुण्यवृत्तिने
खातर तुं आखा मोक्षमार्गने वेची रह्यो छे! जेम थोडीक राखने माटे