Atmadharma magazine - Ank 310
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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वार्षिक वीर सं. २४९५
लवाजम श्रावण
चार रूपिया
• वर्ष २६ : अंक १० •
हम तो कबहूं न निज घर आये
हम तो कबहूँ न निज घर आये ।। टेक ।।
पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक घराये ।। हम०।।
परपद–निजपद मान मगन ह्व परपरिणति लिपटाये ।।
शुद्ध शुद्ध सुखकन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये ।। हम०।।
नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये ।।
अमल अखण्ड अतुल अविनाशी, आतमगुन नहिं गाये ।। हम०।।
यह बहभूल भई हमरी, फिर कहाकाज पछिताये ।।
‘दौल तजो अजहूं विषयनको, सत्गुरुवचन सुहाये ।। हम०।।
निजघर एटले आनंदमय चैतन्यधाम तेना अनुभवनी भावना व्यक्त
करतां कवि कहे छे के अरे, अमारा आ निजघरमां अमे कदी न आव्या.
भवभ्रमणरूप घरमां भमतां भमतां घणां दिवसो वीत्या ने घणां नाम
धारण कर्या; परपदने ज निजपद समजीने तेमां मग्न थई रह्यो ने
परपरिणतिमां फसायो, परंतु शुद्ध–बुद्ध–सुखकंद ने मनोहर एवा
चैतनभावनी भावना कदी न भावी.
नर–पशु–देव–नरक एम चारगतिरूपे ज आत्माने मानीने पर्यायबुद्धि
थई गयो; पण अमल–अखंड–अतुल ने अविनाशी एवा आत्माना गुण
न गाया, तेनी ओळखाण न करी. आ अमारी मोटी भूल थई गई; पण
(कवि कहे छे के) हवे पस्तावाथी शुं? हवे तो सद्गुरुना वचननो प्रेम
करीने हे दौलत! तमे आजे ज विषयोने छोडो अने आनंदमय चेतनधाम
एवा निजघरमां आवीने रहो.