Atmadharma magazine - Ank 310
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९प
सर्वज्ञपदनी विभूतिथी भरेलुं चैतन्यमय निजघर
मरण टाणे जीव शरीरने कहे छे: हे भाईबंध! मारी साथे चाल.
त्यारे शरीर कहे छे के: हुं तारी साथे नहि आवुं.
हे जीव! तुं तो उत्कृष्ट चैतन्यरूपनो धारक छो; तारी सर्वज्ञपदनी विभूति
जगतमां उत्कृष्ट छे; अरे, तुं देहमां क्यां मूर्छाणो? विज्ञानघन आनंदमूर्ति आत्मा तुं
मृतक–कलेवर जेवा शरीरमां केम मोहित थयो? शरीरनी अवस्थाथी तुं पोताने सुखी–
दुःखी माने छे ते महान असत्य छे. हुं पैसावाळो अथवा हुं गरीब–ए पण बाह्यबुद्धि
छे. शरीर पण तारुं नथी तो धन–पुत्रादि तारां क्यांथी थया? –ए तो क्षेत्रथी पण
ताराथी दूर पडया छे, तो तारां क्यांथी थई गया! भाई, तुं पैसावाळो के गरीब नथी,
तुं तो चैतन्यलक्ष्मीनो खजानो छो, आनंदनो भंडार छो; जेनी प्रीतिना बळे छ खंडनी
विभूतिनो मोह क्षणमां छूटी जाय–एवी चैतन्यसंपत्तिनो भंडार तुं छो. माटे दीनता
छोड, ने तारी चैतन्यलक्ष्मीने संभाळ.
संभाळता नथी. जडना संयोगथी हुं राजा के हुं रंक–ए बंने मान्यता मिथ्या छे. पैसा तो
पुद्गलनी रचनाथी बन्या छे, ते कांई जीवनी रचनाथी बन्या नथी. जीवनी रचना तो
ज्ञानमय होय, जड न होय, असंगी चैतन्यने भूलीने परसंगने पोताना मानतां जीव
दुःखी थाय छे. कोई जीव ‘रूपिया मारा’ एवा तीव्र मोहवश मरीने ते रूपियाना
डाबलामां ज अवतरे छे. जाणे के रूपिया ते ज जीव होय एम तेनी पाछळ जीवन
गुमावे छे.–पण भाई! तारुं जीवन रूपिया वगरनुं चैतन्यमय छे; रूपिया वगरनो
आनंद तारामां छे. तुं कहे छे–बंगलो मारो, घर मारुं, पण ए तो माटीनां छे. तारुं घर
तो चैतन्यमय छे; चैतन्यघरमां तारुं रहेठाण छे, जड ईंटना ढगलामां तारुं रहेठाण
नथी. चैतन्यमय निजघरने भूलीने परघरमां–पथ्थरनां बंगलामां के झूंपडामां जीव
पोतापणानी बुद्धि करे छे ने मोहथी रखडे छे. सन्तो तेने असंख्यप्रदेशी आनंदनुं धाम
एवुं निजघर बतावे छे. भाई, तुं निजघरमां कदी न आव्यो ने बहार चार गतिरूप
परघरमां रखडयो, हवे तो जिनघरमां आव.