Atmadharma magazine - Ank 310
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 5 of 48

background image
: श्रावण : २४९प आत्मधर्म : ३ :
हवे तो
निजघरमां
आव.
हम तो कबहूं न निजघर आये....................हम तो
परपद निजपद मान मगन है परिणति लिपटाये,
शुद्धबुद्ध सुखकंद मनोहर चेतनभाव न भाये.......हम तो०
अरे, पत्थरनुं मकान के शरीर ते तो जडनी रचना छे, ए जडभुवनमां आत्मानुं
खरूं रहेठाण नथी. आत्मानुं खरू रहेठाण तो ज्ञान अने सुखनुं धाम छे, एवा
आत्मभुवनमां हे जीव! तुं आव.
अगाउना श्रीमंत लोको घणा गाय–भेंस राखता ने तेने धन गणातुं; गाय
भेंसने बदले अत्यारे तो घरे घरे रेडिया ने मोटर थई गया छे. पण ए गाय–भेंस के
मोटर–रेडिया कांई जीवनुं नथी. जीव मफतनो एनी पाछळ जींदगी गुमावे छे; भाई! ए
कोई तने शरण थवाना नथी. राजपद ने प्रधानपद पण अनंतवार मळ्‌यां, पण ए कांई
तारां पद नथी, ते तो अपद छे, तारुं पद तो चैतन्यमय छे. धन–शरीरादि तारां होय तो
ते तारी साथे ज रहेवा जोईए ने परभावमांय साथे आववा जोईए. मरण टाणे तो
ए बधा अहीं पडया रहेशे, तेनी खातर तें गमे तेटला पाप बांध्यां पण तारी साथे
एक डगलुं पण ते आववानां नथी.
मरवानुं टाणुं थतां जीव शरीरने कहे छे के–हे शरीर! हे मारा भाईबंध! आखी
जींदगी आपणे साथे रह्या माटे हवे तुं मारी साथे चाल!