जीव कहे छे के–अरे, पण में तारा खातर जीवन वीताव्युं ने घणां पाप करी
जईश. –आपणी बंनेनी चाल जुदी छे. तें भ्रमथी मारी साथे एकता मानी ते तारी
भूल हती.
चाल्या जतां नजरे देखाय छे. छतां मफतनो मोह करीने जीव दुःखी थाय छे. मारी पुत्री,
मारो पुत्र, मारी माता, मारी बेन, मारो भाई, –एम ममता करे छे, पण तारुं तो
ज्ञान छे, ते ज्ञानने अनुभवमां ले.
आत्मधर्ममां (अंक ३०८
तो एटलुं ज कहीशुं के बंधुओ! आपणा वीतरागी जैनसिंद्धातमां जे
कांई कह्युं छे ते सत्य ज छे, अने तेनाथी विरुद्ध हजी सुधी कोई
घटना बनी नथी. चंद्रसंबंधी चर्चा वखते गुरुदेव एक सरस
‘आत्मस्पर्शी’ न्याय वारंवार कहेता के –ईन्द्रियोथी अगोचर एवो
अतीन्द्रिय ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा–तेनुं वर्णन जेमां यथार्थ छे अने
साधकने मतिश्रुतज्ञानद्वारा जेनुं स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष थई शके छे; –
एवा अतीन्द्रिय आत्मानुं वर्णन जेमां यथार्थ छे, ते जैनशास्त्रोमां
त्रणलोकनुं (चंद्र–सूर्य–मेरु–विदेह वगेरेनुं पण) जे वर्णन छे ते
यथार्थ ज छे. अने जगतमां जे कांई बनावो बनशे ते जैनसिद्धांतनी
पुष्टि करनारा ज हशे; –ए बाबतमां निःशंक रहीने हे बंधुओ!
आत्महितना लक्षे जैनसिद्धांतनुं सेवन करो. चंद्र वगेरे संबंधी विशेष
ख्याल कदाच न आवे तो पण जैनसिद्धान्तमां कहेला प्रयोजनभूत
तत्त्वना अभ्यासवडे आत्महित साधी शकाय छे. माटे निःशंकपणे
जैनसिद्धांतनुं भक्तिथी सेवन करो.