‘असाध्य’ छे. वस्तुनो स्वभाव यथार्थपणे सम्यग्दर्शनपूर्वकना ज्ञानथी न समजे तो
जीवने स्वरूपनो किचिंत् लाभ नथी. सम्यग्दर्शनज्ञानवडे स्वरूपनी ओळखाण अने
अनुभव कर्यो तेने ज ‘शुद्ध आत्मा’ एवुं नाम मळे छे, ते ज समयसार छे अने ए ज
सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान छे, ‘हुं शुद्ध छुं’ एवो विकल्प छूटीने एकलो
आत्मअनुभव थाय त्यारे ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थाय छे. आ सम्यग्दर्शन
अने सम्यग्ज्ञान ए कांई आत्माथी जुदां नथी, ते शुद्धआत्मारूप ज छे.
थशे एवी वात तेने बेसे नहि. जेने सत्स्वभाव जोईतो होय ते स्वभावथी
विरुद्धभावनी हा न पाडे, तेने पोतानां न माने. वस्तुनुं स्वरूप शुद्ध छे तेनो बराबर
निर्णय कर्यो अने रागथी भिन्न पडीने ज्ञान स्वसन्मुख थतां जे अभेद शुद्ध अनुभव
थयो ते ज समयसार छे, अने ते ज धर्म छे. आवो धर्म केवी रीते थाय, धर्म करवा माटे
प्रथम शुं करवुं? ते संबंधी आ कथन चाले छे.
कांई करवा–मूकवानो स्वभाव नथी. आ प्रमाणे सत् समजवामां जे काळ जाय छे ते
अनंतकाळे नहि करेलो एवो अपूर्व अभ्यास छे. जीवने सत् तरफनी रुचि थाय एटले
वैराग्य जागे अने आखा संसार तरफनी रुचि ऊडी जाय. चोराशीना अवतारनो त्रास
थई जाय के ‘अरे! आ त्रास शा? आ दुःख क्यां सुधी? स्वरूपनुं भान नहि अने
क्षणेक्षणे पराश्रयभावमां राचवुं–आ ते कांई मनुष्यजीवन छे? तिर्यंच वगेरेनां दुःखनी
तो वात ज शी, परंतु आ मनुष्यमां पण आवा जीवन? अने मरण टाणे स्वरूपना
भान वगर असाध्य थईने मरवुं? नहि; हवे आनाथी छूटवानो उपाय करुं ने शीघ्र आ
दुःखथी आत्माने मुक्त करुं. –आ प्रमाणे संसारनो त्रास थतां स्वरूप समजवानी रुचि
थाय. वस्तु समजवा माटेनो जे उद्यम ते पण ज्ञाननी क्रिया छे, सत्नो मार्ग छे.