Atmadharma magazine - Ank 310
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: ४२ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९प
नथी. पुण्य–पापना भाव के स्वर्ग–नरक आदि कोई गति मारो स्वभाव नथी–एम
श्रुतज्ञानवडे आत्मानो निर्णय करवो ते ज धर्मनो प्रथम उपाय छे. श्रुतना अवलबंनथी
ज्ञानस्वभावनो जे निर्णय कर्यो तेनुं फळ, ते निर्णय–अनुसार अनुभव करवो ते छे.
आत्मानो निर्णय ते ‘कारण’ अने आत्मानो अनुभव ते कार्य ए रीते अहीं लीधुं छे,
एटले जे निर्णय करे तेने अनुभव थाय ज एम वात करी छे. कारणना सेवन–
अनुसार कार्य प्रगटे ज.
अंतर–अनुभवनो उपाय अर्थात् ज्ञाननी क्रिया
आत्मानो निर्णय कर्या पछी तेनो प्रगट अनुभव कई रीते करवो ते बतावे छे:
निर्णयअनुसार ज्ञाननुं आचरण ते अनुभव छे. प्रगट अनुभवमां शांतिनुं वेदन
लाववा माटे एटले आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि माटे पर पदार्थनी प्रसिद्धिमां कारणने छोडी
देवा एटले के ईन्द्रिय अने मननुं अवलंबन छोडीने ज्ञानने स्व तरफ वाळवुं. देव–गुरु–
शास्त्र वगेरे पर पदार्थो तरफनुं लक्ष तथा मनना अवलंबनने प्रवर्तती बुद्धि तेने
संकोचीने, मर्यादामां लावीने पोता तरफ वाळवुं, ते अंर्त–अनुभवनो पंथ छे, अने ते
ज सहज शीतळस्वरूप अनाकुळ स्वभावमां पेसवानुं द्वार छे.
प्रथम हुं आत्मा ज्ञानस्वभाव छुं एवो बराबर निश्चय करीने, पछी तेनो प्रगट
अनुभव करवा माटे, पर तरफ वळता मति अने श्रुतज्ञानने स्व तरफ एकाग्र करवा,
खरेखर तो ज्यां ज्ञानस्वभावने लक्षगत करवा जाय त्यां मतिश्रुतनो उपयोग अंतरमां
वळी ज जाय छे. एटले जे ज्ञान विकल्पमां अटकतुं ते ज्ञान त्यांथी छूटीने स्वभावमां
आवे छे. ज्ञान आत्मसन्मुख थतां स्वभावनो निर्विकल्प अनुभव थाय छे.
ज्ञानमां भव नथी
जेणे मनना अवलंबने प्रवर्तता ज्ञानने मनथी छोडावी स्व तरफ वाळ्‌युं छे
अर्थात् मतिज्ञान पर तरफ वळतुं तेने मर्यादामां लईने आत्मसन्मुख कर्यु छे तेना
ज्ञानमां अनंत संसारनो नास्तिभाव अने ज्ञानस्वभावनो अस्तिभाव छे. आवी
समजण अने आवुं ज्ञान करवुं तेमां अनंत पुरुषार्थ छे. स्वभावमां भव नथी, तेथी
जेने स्वभाव तरफनो पुरुषार्थ ऊग्यो तेने भवनी शंका रहेती नथी. ज्यां भवनी शंका
छे त्यां साचुं ज्ञान नथी अने ज्यां साचुं ज्ञान छे त्यां भवनी शंका नथी–आ रीते
‘ज्ञान’ अने ‘भव’ नी एकबीजामां नास्ति छे.
पुरुषार्थ वडे सत्समागमथी एकला ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय कर्यो पछी