Atmadharma magazine - Ank 310
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९प आत्मधर्म : ४३ :
‘हुं अबंध छुं के बंधवाळो छुं, शुद्ध छुं के अशुद्ध छुं, त्रिकाळी छुं के क्षणिक छुं’ एवी जे
वृत्तिओ ऊठे तेमां पण हजी आत्मशांति नथी, ते वृत्तिओ आकुळतामय छे.
आत्मशांतिनी विरोधिनी छे. नयपक्षोना अवलंबनथी थता मनसंबंधी अनेक प्रकारना
विकल्पो तेने पण मर्यादामां लावीने अर्थात् ते विकल्पोथी पण ज्ञानने जुदुं करीने
श्रुतज्ञानने पण आत्मसन्मुख करतां शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे; आ रीते मति अने
श्रुतज्ञानने आत्मसन्मुख करवा ते ज सम्यग्दर्शननी रीत छे. ईन्द्रिय अने मनना
अवलंबने मतिज्ञान परलक्षे प्रवर्ततुं तेने, अने मनना अवलंबने श्रुतज्ञान अनेक
प्रकारना नयपक्षोना विकल्पोमां अटकतुं तेने, –एटले के बहारमां भमतां मतिज्ञान
अने श्रुतज्ञानने मर्यादामां लावीने, –अंर्तस्वभावसन्मुख करीने, एक ज्ञानस्वभावने
पकडीने (उपयोगमां लईने) निर्विकल्प थईने तत्काळ निजरसथी ज प्रगट थता
शुद्धात्मानो अनुभव करवो; ते अनुभव ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
अनुभवमां आवतो शुद्धात्मा केवो छे?
शुद्धस्वभाव आदि–मध्य–अंतरहित त्रिकाळ एकरूप छे, तेमां बंध–मोक्ष नथी, ते
अनाकुळस्वरूप छे, ‘हुं शुद्ध छुं के अशुद्ध छुं’ एवा विकल्पथी थती जे आकुळता तेनाथी
रहित छे. लक्षमांथी पुण्य–पापनो आश्रय छूटतां एकलो आत्मा ज अनुभवमां आवे
छे, केवळ एक आत्मामां पुण्य–पापना कोई भावो नथी. जाणे के आखाय विश्व उपर
तरतो होय एटले के समस्त विभावोथी जुदो थई गयो होय तेवो चैतन्यस्वभाव छूटो
अखंड प्रतिभासमय अनुभवाय छे. आत्मानो स्वभाव पुण्य–पापनी उपर तरतो छे,
एटले तेमां भळी जतो नथी; ते–रूप थतो नथी परंतु तेनाथी छूटो ने छूटो रहे छे. वळी
अनंत छे एटले के जेना स्वभावनो कदी अंत नथी, पुण्य–पाप तो अंतवाळा छे,
ज्ञानस्वरूप अनंत छे; अने विज्ञानघन छे, एकला ज्ञाननो ज पिंड छे. एकला
ज्ञानपिंडमां राग–द्वेष जरा पण नथी. रागनो अज्ञानभावे कर्ता हतो पण स्वभावभावे
रागनो कर्ता नथी. अखंड आत्मस्वभावनो निर्णय करीने पछी, समस्त विभावभावोनुं
लक्ष छोडीने ज्यारे आ आत्मा, विज्ञानघन (एटले जेमां कोई विकल्पो प्रवेश करी शके
नहि एवा ज्ञानना निवड पिंडरूप) परमात्मस्वरूप समयसारने अनुभवे छे त्यारे ते
पोते ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानरूप छे.
निश्चय अने व्यवहार
आमां निश्चय–व्यवहार बंने आवी जाय छे. अखंड विज्ञानघनस्वरूप
ज्ञानस्वभावी आत्मा ते निश्चय छे अने परिणतिने स्वभाव–सन्मुख करवी ते शुद्ध
व्यवहार