ज्ञानस्वभावमां एकाग्रता वधती जाय तेम तेम शुभाशुभभाव पण टळता जाय छे.
बहारना लक्ष जे वेदन थाय ते बधुं दुःखरूप छे, अंदरमां शांतरसनी मूर्ति आत्मा छे
तेना लक्षे जे वेदन थाय ते ज सुख छे. सम्यग्दर्शन ते आत्मानो गुण छे, गुण ते
गुणीथी जुदो न होय. एक अखंड प्रतिभासमय आत्मानो अनुभव ते ज सम्यग्दर्शन
छे, ने ते आत्मा ज छे.
ज्ञानस्वरूप आत्मानो निश्चय करवो. वास्तविक तत्त्वनी श्रद्धा वगर अंदरना वेदननी
रमझट नहि जामे. प्रथम अंतरथी सतनो हकार आप्या वगर सत्स्वरूपनुं ज्ञान थाय
नहि अने सत्स्वरूपना ज्ञान वगर भवबंधननी बेडी तूटे नहि. भवबंधनना अंत
वगरनां जीवन शा कामना? भवना अंतनी श्रद्धा वगर कदाच पुण्य करे तो तेनुं फळ
राजपद के देवपद मळे, परंतु तेमां आत्माने शुं? आत्माना भान वगरना तो ए पुण्य
अने ए देवपद बधांय धूळधाणी ज छे, तेमां आत्मानी शांतिनो अंश पण नथी. माटे
पहेलां श्रुतज्ञानवडे ज्ञानस्वभावनो द्रढ निश्चय करतां प्रतीतमां भवनी शंका रहेती
नथी, अने जेटली ज्ञाननी द्रढता थाय तेटली शांति वधती जाय छे.
तारी प्रभुतानो लाभ नथी. तें परनां गाणां गाया पण पोताना गाणां गाया नहि,
अर्थात् पोताना स्वभावनी महत्ता जाणी नहि तो तने शो लाभ? भगवाननी प्रतिमा
सामे कहे के ‘हे नाथ, हे भगवान! आप अनंतज्ञानना धणी छो’ त्यां सामो पण एवो
ज पडघो पडे के ‘हे नाथ, हे भगवान! आप अनंतज्ञानना धणी छो......’ एटले के
जेवुं परमात्मानुं स्वरूप छे एवुं ज तारुं स्वरूप छे, तेने तुं ओळख; तो तने तारी
प्रभुतानो लाभ थाय.
एक आत्मा ज छे, तेने ज जुदा जुदा नामथी कहेवाय छे. केवळीपद, सिद्धपद के साधुपद,
ए बधा एक आत्मामां ज समाय छे. आराधना, मोक्षमार्ग ए वगेरे पण
शुद्धआत्मामां ज समाय छे. आवा आत्मस्वरूपनी अनुभूति ए ज सम्यग्दर्शन छे अने
सम्यग्दर्शन ज आत्माना सर्व धर्मनुं मूळ छे.