Atmadharma magazine - Ank 311
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : भादरवो : २४९प
जीवना मिथ्यात्वादि भावो ते संज्ञ–आस्रव एटले के भावास्रव छे; तथा जुनां
कर्मोनुं उदयमां आववुं ते असंज्ञ–आस्रव अर्थात् द्रव्यास्त्रव छे, अने ते नवा कर्मना
आस्रवनुं कारण छे. पण ते जुनुं कर्म नवा कर्मना आस्रवनुं निमित्त क्यारे थाय? के
जीव जो राग–द्वेष–मोहरूप अज्ञानभावे परिणमे तो ज जुना कर्मनो उदय तेने नवा
कर्मना आस्रवनुं निमित्त थाय छे; जीवना राग–द्वेष–मोह वगर द्रव्यास्रवो ते नवा
आस्रवनुं कारण थता नथी.
जीवनो जे चिदानंदस्वभाव छे, ते स्वभावमां राग–द्वेष–मोह नथी; तेओ
खरेखर चैतन्य नथी पण चैतन्य जेवो देखाय छे, एटले ‘चिदाभास’ छे. चोथा
गुणस्थाने धर्मात्मा ते चिदाभास परिणामोने पोताना स्वभावपणे अनुभवता
नथी, तेने ज्ञानथी भिन्न एटले के अज्ञानमयपरिणाम जाणे छे. आनंदस्वरूप
आत्माने भूलीने ज्यारे अज्ञानपणे रागादिनो कर्ता थाय त्यारे ज जीवने आस्रव
थाय छे.
प्रश्न– ज्ञानीने आस्रव केम नथी?
उत्तर:–
केमके ज्ञानी पोताने राग–द्वेष–मोहथी भिन्न एवा चिदानंदस्वभावपणे
ज अनुभवे छे; ते चिदानंदस्वभावमां आस्रव केम होय? रागादिमां जेने एकत्वबुद्धि छे
तेने ज आस्रव छे, ने ते तो अज्ञानीने ज होय छे, ज्ञानीने नहीं.
जुओ, आ धर्मनी सरस वात छे. धर्मीनी ज्ञानदशा केवी होय? ने अज्ञानीना
परिणाम केवा होय? तेनुं पृथक्करण करीने अपूर्व वात समजावी छे. रागथी भिन्न
जेटलुं चैतन्यपरिणाम थयुं तेमां वीतरागी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र छे. चोथा गुणस्थाने पण
अनंतानुबंधी कषायोनो अभाव थईने जेटलुं वीतरागभावरूप परिणमन थयुं छे
तेटला अंशे चारित्र छे; ने ते वीतरागभावमां आस्रव नथी. आत्मा साथे ते परिणाम–
अभेद थई गया, अभेदज्ञान थयुं, वीतरागविज्ञान थयुं. आवा ज्ञानपरिणामने धर्म कहे
छे. ते जीव स्वघरमां आवीने वस्यो; आनंदमय एवा निजधाममां आवीने ते रह्यो; ते
चेतन्यमय स्वघरमां आस्रवनो प्रवेश नथी.
अहो, चैतन्यचक्रवर्ती भगवान आत्मा, तेनो अनादर करीने रागनो आदर
करतां मिथ्यात्वनुं मोटुं पाप थाय छे, ते माटो आस्रव छे. धर्मीने विकल्पथी भेद, ने
चैतन्यस्वभाव साथे अभेदपणुं वर्ते छे एटले तेना परिणाम चैतन्य साथे अभेद
थयेला छे, तेमां रागादि आस्रवनो अभाव छे, ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तेमां
समाय छे.