आस्रवनुं कारण छे. पण ते जुनुं कर्म नवा कर्मना आस्रवनुं निमित्त क्यारे थाय? के
जीव जो राग–द्वेष–मोहरूप अज्ञानभावे परिणमे तो ज जुना कर्मनो उदय तेने नवा
कर्मना आस्रवनुं निमित्त थाय छे; जीवना राग–द्वेष–मोह वगर द्रव्यास्रवो ते नवा
आस्रवनुं कारण थता नथी.
गुणस्थाने धर्मात्मा ते चिदाभास परिणामोने पोताना स्वभावपणे अनुभवता
नथी, तेने ज्ञानथी भिन्न एटले के अज्ञानमयपरिणाम जाणे छे. आनंदस्वरूप
आत्माने भूलीने ज्यारे अज्ञानपणे रागादिनो कर्ता थाय त्यारे ज जीवने आस्रव
थाय छे.
उत्तर:–
तेने ज आस्रव छे, ने ते तो अज्ञानीने ज होय छे, ज्ञानीने नहीं.
जेटलुं चैतन्यपरिणाम थयुं तेमां वीतरागी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र छे. चोथा गुणस्थाने पण
अनंतानुबंधी कषायोनो अभाव थईने जेटलुं वीतरागभावरूप परिणमन थयुं छे
तेटला अंशे चारित्र छे; ने ते वीतरागभावमां आस्रव नथी. आत्मा साथे ते परिणाम–
अभेद थई गया, अभेदज्ञान थयुं, वीतरागविज्ञान थयुं. आवा ज्ञानपरिणामने धर्म कहे
छे. ते जीव स्वघरमां आवीने वस्यो; आनंदमय एवा निजधाममां आवीने ते रह्यो; ते
चेतन्यमय स्वघरमां आस्रवनो प्रवेश नथी.
चैतन्यस्वभाव साथे अभेदपणुं वर्ते छे एटले तेना परिणाम चैतन्य साथे अभेद
थयेला छे, तेमां रागादि आस्रवनो अभाव छे, ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तेमां
समाय छे.