: भादरवो : २४९प आत्मधर्म : ११ :
जेम दुधीयुं वगेरे पीणामां अनेक प्रकारनां रस मळेला छे, तेम चैतन्यना अनुभवमां
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र–आनंद वगेरे वीतरागी रस एकमेक अभेद अनुभवाय छे, आवा
वीतरागभावरूप परिणाम चोथा गुणस्थानथी शरू थई जाय छे. चोथा गुणस्थाने जे
सम्यक्त्वादि परिणाम छे ते पण वीतराग छे. ने ते परिणाम आस्रवनुं कारण थतुं नथी.
आस्रवनुं कारण तो अज्ञानमय परिणाम छे. ने ते अज्ञानपरिणाम तो अज्ञानी ज करे
छे. ज्ञानी तो पोताने कर्मथी अने रागादिथी पण भिन्न चिदानंदस्वरूपे अनुभवे छे.
एवो अनुभव थतां संसारनुं मूळ ऊखडी गयुं. आस्रवनुं मूळ कारण छेदाई गयुं. हवे
रागादिभावो ते ज्ञाननुं कार्य नथी पण ज्ञानना ज्ञेयपणे ज छे; माटे ज्ञानमय
परिणाममां धर्मीने आस्रव नथी.
आत्मा अने आस्रवनुं भेदज्ञान ज्यां थयुं त्यां ज्ञान रागादिथी निवृत्त थयुं,
वीतराग थयुं. जुओ, आ वीतरागनो मार्ग! संतोना वीतरागी हृदयनी आ वात छे.
आ महान मंगळ छे. धर्मीनां परिणाम ज्ञानमय ज छे, ने ज्ञानमय परिणाममां बंधन
छे ज नहीं, माटे ते मुक्त ज छे. धर्मी तो रागथी जुदो पडीने ज्ञानभावमय एवा
निजघरमां वस्या छे. वस्तुमां वसवुं तेनुं नाम वास्तु; चैतन्य वस्तु तो रागथी पार
आनंदमय छे, ते वस्तुने श्रद्धामां–ज्ञानमां–अनुभवमां लेवी ते ज स्वघरनुं साचुं वास्तु
छे. स्वघरमां वसतां केवळज्ञान थशे ने सादि अनंतकाळ आनंदमय निजघरमां ते रहेशे.
सम्यग्दर्शन ते मोक्षमहेलने माटे सीसाना पाया जेवुं छे. मिथ्यात्वना पाया उपर
मोक्षनो महेल चणाय नहीं. मोक्ष महेल माटे चिदानंदस्वभावनी निर्विकल्प अनुभूति
करीने सम्यक् प्रतीतरूप पाको पायो नांखवो जोईए. एवो अनुभव करतां आस्रवनो
आंखमां अंजन
एक सखी बीजी सखीने आंखमां अंजन आंजवा गई. त्यारे
बीजी सखी कहे छे के रहेवा दे; मारा नयनमां कृष्णप्रेम एवो ठांसीठांसीने
भर्यो छे के तेमां हवे अंजननी जग्या नथी.
तेम धर्मीनी द्रष्टिमां चेतन्यप्रेम एवो भर्यो छे के तेमां हवे
रागनी कालिमानो अंश पण समाय तेम नथी. एनी द्रष्टिमां आतम–
राम वस्या छे, तेमां हवे अन्यनो अवकाश नथी.