Atmadharma magazine - Ank 311
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९प
शुभ के अशुभ बंने भावो कषाय छे, अपराध छे, ते मोक्षमार्गनुं साधन नथी.
मोक्षमार्गमां ज्ञानीने शुभराग थाय ते पण अपराध छे, ते कांई गुण नथी. गुण तो
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ते रत्नत्रय ज निर्वाणनो हेतु छे. पुरुषार्थसिद्धिउपायमां
गाथा २२०मां कहे छे के–
रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति, न अन्यस्य।
आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽपराधः।।
जे सम्यक्त्वादि रत्नत्रय छे ते तो निर्वाणनो ज हेतु छे, ते बीजानो हेतु
नथी अर्थात् ते बंधनुं कारण नथी. धर्मीने जे पुण्यनो आस्रव थाय छे ते तो आ
शुभोपयोगनो अपराध छे; अर्थात् शुभोपयोग ज पुण्यबंधनुं कारण छे अने ते
अपराध छे; रत्नत्रयरूप वीतरागधर्म ते कांई पुण्यबंधनुं कारण नथी.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना जेटला अंशो छे तेटला अंशे बंधन नथी; जे रागांशो
छे ते ज बंधनुं कारण छे–ए सिद्धांत गा. २१२–२१३–२१४ मां स्पष्टपणे
अमृतचन्द्राचार्ये समजाव्यो छे.
ज्ञानीने पुण्यबंध थाय ते कांई रत्नत्रयनुं कार्य नथी, ते तो शुभोपयोगनो
अपराध छे, शुभोपयोग ज ते पुण्यबंधनुं कारण छे, रत्नत्रय कांई बंधनुं कारण थता
नथी, ते तो मोक्षनुं ज कारण थाय छे. अरे, तारी चीज मोक्षस्वरूप सर्वज्ञस्वभावथी
भरपूर तेने तुं संभाळ. सर्व गुणसम्पन्न आत्मा छे; सर्वज्ञेयोने साक्षात् सर्वप्रकारे
जाणवानी तेनी ताकात छे. पण पोते पोताने आवो सर्वज्ञस्वभावी न मानतां, पुण्य–
पापरूप बंधभावरूपे ज पोताने माने छे ते अंदरना साक्षात् भगवानथी दूर थईने
परभावमां जाय छे. अहो, सर्वज्ञस्वभावी आत्मा अंदर बिराजे छे, तेमां नजर करतां
बंधभावोथी रहित मुक्तस्वरूप आत्मा अनुभवाय छे. आवो अनुभव ते अपूर्व
अलौकिक वस्तु छे.
‘श्रावण वद बीज’ ना आ प्रवचनमां धर्मरत्न, पू. चंपाबेनना जन्मदिवसने
याद करीने गुरुदेव वात्सलताथी कहे छे के अहो, सर्वगुणथी संपूर्ण एवो चैतन्यरत्नाकर
भगवान तेमां नजर करीने अनुभव करवो ते मोक्षनुं कारण छे. ज्ञानी पोताना
चैतन्यस्वभावने अनुभवता थका भगवाननी नजीक वर्ते छे. जे पोताना अपराधथी
भगवानने भूल्यो ते भगवानथी दूर थयो, पुण्य–पापने पोतानुं मानीने अज्ञानमां
अटकेला जीवो भगवानने भूली जाय छे; एटले ते तो भगवानथी दूर छे. ने