: भादरवो : २४९प आत्मधर्म : १७ :
गुप्ति पालने काज,
कपट मन–वच–तन नाहीं,
पांचो समिति सम्हाल,
परीषह सहि है आहीं.ाा ३ाा
छोड सकल जग जाल,
आपकर आप आपमें,
अपने हितको आप,
किया है शुद्ध जापमे;
ऐसी निश्चल काय,
ध्यानमें मुनिजन केरी,
मानों पत्थर रची किधों,
चित्राम उकेरी.ाा ४ाा
चार घातिया घाति,
ज्ञानमें लोक निहारा,
दे निजमति उपदेश,
भव्योंको दुःखसे टारा;
बहुरि अघातिया तौड,
समयमें शिवपद पाया,
अलख अखंडित ज्योति,
शुद्ध चेतन ठहराया.ाा पाा
काल अनंतानंत
जैसे के तैसे रहे हैं,
अविनाशी अविकार अचल,
अनुपम सुख लहे हैं;
वचन कायाथी कपट छोडीने त्रण
गुप्तिनुं पालन करवा लाग्या, तथा
ईर्या–भाषा–एषणा–आदान–निक्षेपन
तथा प्रतिष्ठापन ए पांच समितिना
पालनमां सावधान थया. अने बावीस
प्रकारना परिषह सहन करवा लाग्या.
(४) वळी केवा छे ते मुनि? सकळ
जगजाळ छोडीने पोतावडे पोते पोतामां
एकाग्र थया छे, पोताना हितने माटे
पोताना ध्यान वडे पोताने शुद्ध कर्यो छे,
अर्थात् शुद्धात्मानुं ध्यान करीने निज
स्वरूपमां लीन थया छे. अहा! ते
ध्यानमां लीन मुनिराजनुं शरीर पण
एवुं निश्चल छे के जाणे पत्थरथी मूर्ति
के चित्र होय! –एम अडोलपणे
आत्मध्यानमां एकाग्र छे.
(प) ए रीते शुद्धात्मध्यानवडे
चार घाती कर्मोनो घात करीने
केवळज्ञानमां लोकालोकने देख्या; अने
केवळज्ञान–अनुसार उपदेश दईने
भव्यजीवोने दुःखथी छोडाव्या. पछी
चार अघाती कर्मोने पण नष्ट करीने
एक समयमां सिद्धपद पाम्या; ने
ईन्द्रियज्ञानथी जे जणाय नहि एवा
अलख, अखंड आत्मज्योति, शुद्ध
चेतनरूप थईने स्थिर थया.
(६) ए सिद्धदशा पामीने ते जीव
अनंतानंत काळ सुधी एवा ने एवा
रहे छे; ने अविनाशी अविकार अचल
अनुपम सुखने अनुभवे छे जे जीवो
आवी आत्मभावना