Atmadharma magazine - Ank 311
(Year 26 - Vir Nirvana Samvat 2495, A.D. 1969)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९प आत्मधर्म : १ :
वार्षिक वीर सं. २४९५
लवाजम भादरवो
चार रूपिया
वर्ष २६ : अंक ११
(सोनगढ : भादरवा सुद बीज : जिनागम–मंदिरना शिलान्यास प्रसंगे प्रवचन)
अहो! परमागममां वीतरागी–अमृतरस भर्या छे.
भगवान आत्मा विज्ञाननो घन आनन्दस्वरूप छे; अने रागादि विकारभावो ते
आस्रवो छे. तेमां ज्ञानघन आत्माने अने रागादि आस्रवोने खरेखर कर्ता–कर्मपणानो
संबंध नथी, बंनेने भिन्नपणुं छे. आवा भिन्नपणानुं भान थयुं ते धर्मी जीव
ज्ञानभावमां तन्मय परिणमतो थको, रागादिभावोने जरापण आत्मापणे करतो नथी
पण आत्माथी भिन्नपणे ज तेने जाणे छे एटले ते रागादिने हेय जाणे छे. आवी जे
रागथी भिन्न ज्ञानचेतना प्रगटी ते जिनागमनो सार छे.
शुद्धनय अनुसार अनुभूति करीने जेणे एकत्व–विभक्त शुद्ध आत्माने जाण्यो
तेणे समस्त जिनशासनने जाण्युं. सर्वज्ञ भगवाने कहेलो जे सर्व उपदेश, तेनो सार
शुद्धात्मानो अनुभव छे. आवा अनुभव वगरना शुभ–अशुभ भावो तो जीवो
अनादिथी करी ज रह्या छे; निगोदमां अनंतकाळथी अनंतजीवो छे तेमने पण अशुभ ने
शुभ बंने परिणाम थया करे छे; शुभ परिणाम थाय ए कांई नवुं नथी. ए तो कर्मधारा
छे; ज्ञानधारा तेनाथी जुदी छे. एवी ज्ञानधारामां वर्तता ज्ञानी शुभाशुभ कर्मधाराने
करता नथी, ते तो ज्ञानधारारूप ज्ञानचेतनाने ज करे छे. आवी ज्ञानचेतना प्रगट करवी
ते परम आगमनी साची प्रतिष्ठा छे. तेना निमित्त तरीके आपणे अहीं परम आगमनी
प्रतिष्ठा थवानी छे.