: २४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९प
३प४. पुण्यना फळमां तो धर्मनां निमित्त
मळे छे?
भले मळे; पण ते निमित्तो आत्माथी
जुदां छे; तेनी सामे जोवाथी कांई
आत्माने धर्मनो लाभ नथी थतो.
३पप. धर्मीने शेनो उत्साह छे?
धर्मीने चैतन्यना अनुभवनो उत्साह छे,
रागनो नहि.
३प६. पुण्य बंधाय तेमां आत्मानी शोभा छे?
जी ना; चैतन्यने बंधन ए तो शरम छे.
३प७. सुख रागमां होय के वीतरागतामां?
वीतरागतामां ज सुख छे, रागमां सुख नथी.
३प८. मोक्षनी श्रद्धा क्यारे थाय?
ज्ञानस्वभावने ओळखे त्यारे; केमके
मोक्ष तो ज्ञानमय छे.
३प९. जीवो दुःखने चाहता नथी छतां दुःखी
केम छे?
केमके दुःखनां कारणरूप मिथ्याभावोने
दिनरात सेवे छे.
३६०. जीवो सुखने चाहे छे छतां सुखी केम
नथी थतां?
केमके सुखनां कारणरूप वीतराग
विज्ञानने क्षण पण सेवता नथी.
३६१. दुःखथी छूटवा ने सुखी थवा शुं
करवुं?
वीतरागविज्ञाननुं सेवन कर ने मिथ्या
भावोने छोड.
३६२. शुभरागनी प्रीतिथी शुं मळे?
संसार.
३६३. चैतन्यपदनी प्रीतिथी शुं मळे? मोक्ष.
३६४. धर्मी पोताने सदाय केवो जाणे छे?
‘हुंं शुद्ध ज्ञान–दर्शनमय छुं’ एम धर्मी
जाणे छे.
३६प. गृहस्थने आत्मानी ओळखाण
थाय?
हा.
३६६. मुनिओ केवा छे?
चैतन्यमां लीन मुनिओ
वीतरागभावथी महान सुखी छे.
३६७. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे केवा छे?
ए त्रणेय राग वगरनां छे, वीतराग छे.
३६८. अनुभवनो अतीन्द्रिय आनंद केवो छे?
रागवडे जे कल्पनामां आवी न शके–एवो.
३६९. निराकुळ सुखरूप मोक्षनुं कारण केवुं होय?
–तेनुं कारण पण निराकुळ (राग
वगरनुं) ज होय. राग ते आकुळता छे
तेने मोक्षनुं कारण मानतां
कारणकार्यमां विपरीतता थाय छे.
३७०. शुभरागरूप व्यवहार क्रियाओ जीवे
पूर्वे कदी करी हशे?
हा, अनंतवार; पण सम्यग्दर्शन विना
धर्म न थयो.
३७१. अनादिथी जीवो कई रीते मुक्त
थाय छे?
वीतरागविज्ञानरूप धर्मने साधी–
साधीने.
३७२. आनंद थवा माटे ‘ज्ञानी’ शुं कहे
छे?
‘हे जीव! तुं आत्मामां गमाड! ’ तेमां
आनंद छे.
(विशेष आवता अंके)